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________________ ३२ विसुद्धिमग्ग है), विच्छिद्दक (द्विधा छित्र शव-शरीर), विक्खायितक (वह शरीर जिसे कुत्तों और शृगालों ने स्थान-स्थान पर विविध रूप से खाया हो), विक्खितक (वह शव जिसके अङ्ग इधर-उधर विखरे पड़े हों) हतविक्खितक (वह शव जिसके अङ्ग प्रत्यङ्ग शस्त्र से काटकर इधर-उधर छितरा दिये गये हों), लोहितक (रक्त से सम्पृक्त शव),पुलुवक (क्रिमियों से परिपूर्ण शव) अठिक (अस्थि-पंजरमात्र)। - अनुस्मृति दस हैं-बुद्धानुस्मृति, धर्मानुस्मृति, सङ्घानुस्मृति, शीलानुस्मृति, त्यागानुस्मृति, देवतानुस्मृति, कायगतास्मृति, मरणानुस्मृति, आनापानस्मृति, उपशमानुस्मृति। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- ये चार ब्रह्मविहार हैं।' आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्त्यायतन, आकिञ्चन्यायतन, नैवसंज्ञानासंज्ञायतन- ये चार आरूप्य हैं। आहार में प्रतिकूलसंज्ञा एक संज्ञा है। चार धातुओं का व्यवस्थान एक व्यवस्थान समाधि के दो प्रकार हैं-उपचार और अर्पणा। जब तक ध्यान क्षीण रहता है और . अर्पणा की उत्पत्ति नहीं होती; तब तक उपचार समाधि का व्यवहार होता है। उपचार-भूमिमें नीवरणों का प्रहाण होकर चित्त समाहित होता है। पर वितर्क विचार आदि पाँच अङ्गों का प्रादुर्भाव नहीं होता। जिस प्रकार ग्राम का समीपवर्ती प्रदेश ग्रामोपचार कहलाता है उसी प्रकार अर्पणासमाधि के समीपवर्ती होने के कारण उपचार संज्ञा पड़ी। उपचार-भूमि में अङ्ग सुदृढ़ नहीं होते, पर अर्पणा में अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है और वे सुदृढ़ हो जाते हैं। इस लिये यह समाधि की प्रतिलाभ-भूमि है। जिस प्रकार बालक जब खड़ा होकर चलने का प्रयास करता है तो आरम्भ में अभ्यास न होने के कारण खड़ा होता है और फिर बार-बार गिर पड़ता है; उसी प्रकार उपचार-समाधि के उत्पन्न होने पर चित्त कभी निमित्त को आलम्बन बनाता है तो कभी भवाङ्ग में अवतीर्ण हो जाता है। पर अर्पणा में अङ्ग सुदृढ़ हो जाते हैं; सारा दिन, सारी रात, चित्त स्थिर रहता है। चालीस कर्मस्थानों में से दस कर्मस्थान-बुद्ध-धर्म-सङ्घ-शील-त्याग-देवता ये छह अनुस्मृतियाँ, मरणानुस्मृति, उपशमानुस्मृति, आहार के विषय में प्रतिकूल संज्ञा और चतुर्धातुव्यवस्थान-उपचार-समाधि का और अवशिष्ट तीस अर्पणा-समाधि का आनयन करते हैं। जो कर्मस्थान अर्पणा-समाधि का आनयन करते हैं; उनमें से दस कसिण और आनापानस्मृति चार ध्यानों के आलम्बन होते हैं; दस अशुभ और कायगतास्मृति प्रथम ध्यान के आलम्बन हैं; पहले तीन ब्रह्म-विहार तीन ध्यानों के और चौथा ब्रह्म-विहार और चार आरूप्य चार ध्यानों के आलम्बन हैं। पहले ध्यान के पांच अङ्ग होते हैं-वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता (समाधि) इससे सवितर्क-सविचार कहते हैं। ध्यानों की परिगणना दो प्रकार से है। चार ध्यान या पांच ध्यान माने जाते हैं। पांच की परिगणना के दूसरे ध्यान में वितर्क का अतिक्रम होता है पर विचार रह जाता है। इसे अवितर्कविचार मात्र कहते हैं। पर चार की परिगणना के द्वितीय ध्यान में और पाँच की परिगणना के तृतीय ध्यान में वितर्क और विचार दोनों का अतिक्रम होता है; केवल प्रीति, सुख और समाधि अवशिष्ट रह जाते हैं। पाँच की परिगणना के चतुर्थ ध्यान में और चार की परिगणना के तृतीय ध्यान में प्रीति का अतिक्रम होता है; केवल सुख और समाधि अवशिष्ट रह जाते हैं। दोनों प्रकार १. तुलना कीजिए-"मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्'' (पा० योगदर्शन, समाधिपाद, सू० ३३)।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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