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________________ अन्तरङ्गकथा ३१ और स्निग्ध हो; ब्रह्मविमान के तुल्य सुन्दर तथा कुसुममाला और नानावर्ण के वस्त्र-वितानों से समलंकृत हो और जिसके दर्शनमात्र से चित्त को आह्लाद प्राप्त हो । उसको श्रमण के अनुरूप हल्का सुरक्त और शुद्ध वर्ण का रेशमी या सूक्ष्म क्षौमवस्त्र धारण करना चाहिये। उसका पात्र मणि की तरह चमकता हुआ और लोहे का होना चाहिये । भिक्षाचार का मार्ग भयरहित, सम, सुन्दर तथा ग्राम से न बहुत दूर और न बहुत निकट होना चाहिये। जिस ग्राम में वह भिक्षाचर्या के लिये जाय वहाँ के लोग आदरपूर्वक उसको भोजन के लिये अपने घर पर निमन्त्रित करें और आसन पर बैठाकर अपने हाथ से भोजन करायें। परोसने वाले पवित्र और मनोज्ञ वस्त्र धारण कर, आभरणों से प्रतिमण्डित हो आदर के साथ भोजन परोसें। भोजन वर्ण, रस और गन्ध से सम्पन्न और हर प्रकार से उत्कृष्ट हो । ईर्यापथ में उसके लिये शय्या या निषद्या उपयुक्त है अर्थात् उसे लेटना या बैठना चाहिये। नीलादि वर्ण-कसिणों में जो आलम्बन सुपरिशुद्ध वर्ण का हो वह उसके लिये उपयुक्त है। मोहचरित पुरुष का आवास खुले हुए स्थान में होना चाहिये; जहाँ बैठकर वह सब दिशाओं को विवृत रूप से देख सके। चार ईर्यापथों में से इसके लिये चंक्रमण ( टहलना) उपयुक्त है, आलम्बनों में शरावमात्र या शूर्पमात्र, क्षुद्र और आलम्बन इसके लिये उपयुक्त नहीं है, क्योंकि घिरी जगह में चित्त और भी मोह को प्राप्त होता है। इसलिये मोहचरित पुरुष का कसिण-मण्डल विपुल होना चाहिये। शेष बातों में मोहचरित द्वेषचरित पुरुष के समान हैं। जो कुछ द्वेषचरित पुरुष के उपयुक्त बताया गया है वह सब श्रद्धाचरित के लिये भी उपयुक्त है। आलम्बनों में श्रद्धांचरित पुरुष के लिये भी अनुस्मृति-स्थान भी उपयुक्त है। बुद्धिचरित पुरुष के लिये आवासादि के विषय में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। वितर्कचरित पुरुष के लिये दिशाभिमुख, खुला हुआ आवास उपयुक्त नहीं है। क्योंकि ऐसे स्थान से उसको आराम, वन, पुष्करिणी आदि दिखलायी देगीं, जिससे चित्त का विक्षेप होगा और वितर्क की वृद्धि होंगी। इसलिये उसे गम्भीर पर्वत - विहार में रहना चाहिये। इसके लिये विपुल आलम्बन भी उपयपुक्त न होगा; क्योंकि यह भी वितर्क की वृद्धि में हेतु होगा। उसका आलम्बन क्षुद्र होना चाहिये। शेष बातों में वितर्कचरित पुरुष रागचरित पुरुष के समान है। आचार्य को चर्या के अनुकूल कर्मस्थान का ग्रहण कराना चाहिये। इस सम्बन्ध में ऊपर संक्षेप में ही कहा गया है, अब विस्तार से कहा जायगा । कर्मस्थान चालीस हैं। वह इस प्रकार हैं-दस कसिण, दस अशुभ, दस अनुस्मृति, चार ब्रह्मविहार, चार आरूप्य, एक संज्ञा, एक व्यवस्थान । कसिण योग-कर्म के सहायक आलम्बनों में से हैं। श्रावक 'कसिण' आलम्बनों की भावना करते हैं। 'कसिणों (= कृत्स्न) पर चित्त को एकाग्र करने से ध्यान की समाप्ति होती है। इस अभ्यास को 'कसिण कम्म' कहते हैं। 'कसिण' दस हैं । विसुद्धिमग्ग के अनुसार 'कसिण' इस प्रकार हैं- पृथ्वीकसिण, अप्०, तेज, वायु०, नील०, पीत०, लोहित०, अवदात०, आलोक, परिच्छिन्नाकाशकसिण । मज्झिमनिकाय तथा दीघनिकाय की सूची में आलोक और परिच्छिन्नाकाश के स्थान में आकाश और विज्ञान परिगणित हैं। अशुंभ दस हैं—उद्धुमातक (भाथी को तरह फूला हुआ मृत शरीर), विनीलक (मृत • शरीर सामान्यतः नीला हो जाता है), विपुब्बक (जिसके भिन्न स्थानों से पीव विस्यन्दमान होती
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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