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________________ विसुद्धिमग्ग धर्म-प्रवृत्ति-रागचरित पुरुष में माया, शाठ्य, मान, पापेच्छा, असन्तोष, चपलता, लोभ, शृङ्गारभाव आदि धर्मों की बहुलता होती है। द्वेषचरित पुरुष में क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, दम्भ आदि धर्मों की बहुलता होती है। मोहचरित पुरुष में विचिकित्सा, आलस्य, चित्तविक्षेप, चित्त की अकर्मण्यता, पश्चात्ताप, प्रतिनिविष्टता, दृढग्राह आदि धर्मों की बहुलता होती है। श्रद्धाचरित पुरुष का परित्याग निःसङ्ग होता है; वह आर्यों के दर्शन की तथा सद्धर्मश्रवण की इच्छा रखता है। उसमें प्रीतिबहुलता होती है, वह शठतो और माया से रहित है, उचित स्थान में वह श्रद्धाभाव रखता है। बुद्धिचरित पुरुष स्निग्धभाषी, मितभोजी और कल्याणमित्र होता है। वह स्मृति-सम्प्रजन्य की रक्षा करता है; सदा जाग्रत् रहता है। संसार का दुःख देखकर उसमें संवेग उत्पन्न होता है और वह उद्योग करता है। वितर्कचरित पुरुष की कुशलधर्मों में अरति होती है; उसका चित्त अनवस्थित होता है; वह बहुभाषी और समाजप्रिय होता है। वह इधर उधर आलम्बनों की पीछे दौड़ता है। - चर्या की विभावना उक्त प्रकार से पालि और अट्ठकथाओं में वर्णित नहीं है। यह केवल कुछ आचार्यों के मतानुसार कहा गया है। इस लिये इस पर पूर्णरूप से विश्वास नहीं करना चाहिये। द्वेषचरित पुरुष भी यदि प्रमाद से रहित हो उद्योग करे तो रागचरित पुरुष की गति आदि का अनुकरण कर सकता है। जो पुरुष संसृष्टचरित है उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की गति आदि नहीं घटती; किन्तु जो प्रकार अट्ठकथाओं में वर्णित है उसका साररूप से ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार आचार्य साधक की चर्या को जान कर निश्चय करता है कि यह पुरुष रागचरित है या द्वेष-चरित है। इस चरित के पुरुष के लिये क्या उपयुक्त है ? अब इस प्रश्न पर हम विचार करेंगे। रागचरित पुरुष को तृणकुटी में, पर्णशाला में, एक तरफ अवनत पर्वतपाद के अधोभाग में या वेदिका से घिरे हुए अपरिशुद्ध भूमितल पर निवास करना चाहिये। उसका आवास रज से आकीर्ण, छिन्न-भिन्न, अति उच्च या अति नीच, अपरिशुद्ध, चमगादड़ों से परिपूर्ण, छायोदकरहित, सिंह-व्याघ्रादि के भय से युक्त, देखने में विरूप और दुर्वर्ण होना चाहिये। ऐसा आवास रागचरित पुरुष को उपयुक्त है। रागचरित पुरुष के लिये ऐसा चीवर उपयुक्त होगा जो किनारों पर फट हो, जिसके धागे चारों और से लटकते हों, जो देखने में जालाकार पूए के समान हो, जो छूने में खुरदरा और देखने में भद्दा, मैला और भारी हो। उसका पात्र मृत्तिका का या लोहे का होना चाहिये। देखने में कुरूप और भारी हो; कपाल की तरह, जिसको देखकर घृणा उत्पन्न हो। उसका भिक्षाचर्या का मार्ग विषम, अमनोरम, और ग्राम से दूर होना चाहिये। भिक्षाचार के लिए उसे ऐसे ग्राम में जाना चाहिये जहाँ के लोग उसकी उपेक्षा करें, जहाँ एक कुल से भी जब उसे भिक्षा न मिले तब लोग आसन-शाला में बुलाकर उसे यवागू भोजन के लिए दें और बिना पूछे चलते बनें। परोसनेवाले भी दास या भृत्य हों, जिनके वल मैले और दुर्गन्धमय हों, जो देखने में दुर्वर्ण हों और जो उपेक्षा से परोसते हों। उसका भोजन रूक्ष, दुर्वर्ण और नीरस होना चाहिये। भोजन के लिये सावाँ, कोदो, चावल के कण, सड़ा हुआ तक्र और जीर्ण शाक का सूप होना चाहिये। उसका ईर्यापथ स्थान या चंक्रमण होना चाहिये अर्थात् उसे या तो खड़े रहना चाहिये या टहलना चाहिये। नीलादिवर्ण-कसिणों (कसिण-कृत्स्नसपम्त)में जिस आलम्बन का वर्ण अपरिशुद्ध हो वह उसके लिये उपयुक्त है। द्वेषचरित पुरुष का शयनासन न बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा होना चाहिये, उसे छाया और जल से सम्पन्न तथा सुवासित होना चाहिये। उसका भूमि-तल समुज्ज्वल, मृदु, सम्
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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