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________________ २९ अन्तरङ्गकथा ऐसा ज्ञात होता है मानो पैर पीछे की ओर खींचता है। मोहचरित की गति व्याकुल होती है। वह भीत पुरुष की तरह पैर रखता है और उठाता है। वह अग्रपाद तथा पाष्णि से गति को सहसा सनिरुद्ध करता है। रागचरित पुरुष जब खड़ा होता है या बैठता है तो उसका आकार प्रसादावह और मधुर होता है। द्वेषचरित पुरुष का आकार स्तब्ध होता है और मोहचरित का आकुल होता है। रागचरित पुरुष विना त्वरा के अपना बिछौना ठीक तरह से बिछाता है और धीरे से शयन करता है, शयन करते समय वह अपने अङ्ग प्रत्यङ्ग का विक्षेप नहीं करता और उसका आकार प्रासादिक होता है। उठाये जाने पर चौंक कर नहीं उठता किन्तु शङ्कित पुरुष की तरह मृदु उत्तर देता है। द्वेषचरित पुरुष जल्दी से किसी न किसी प्रकार अपने बिछौने को बिछाता है और अवश की तरह अङ्ग-प्रत्यङ्ग का सहसा निक्षेप कर भृकुटि चढ़ाकर सोता है, उठाये जाने पर सहसा उठता है और क्रुद्ध होकर उत्तर देता है। मोहचरित पुरुष का विछौना अस्त-व्यस्त होता है, वहा हाथ-पैर फैलाकर प्रायः मुंह नीचा कर सोता है, उठाये जाने पर हुङ्कार करते हुए मन्दभाव से उठता है। श्रद्धाचरितादि पुरुष की वृत्ति रागचरितादि पुरुष के समान होती है, क्योंकि इनकी सभागता है। कृत्य-कृत्य से भी चर्या का निश्चय होता है। जैसे झाड़ देते समय रागचरित पुरुष विना शीघ्रता के झाड़ को अच्छी तरह पकड़ कर समान रूप से झाड़ देता है और स्थान को अच्छी तरह साफ करता है। द्वेषचरित पुरुष झाड़ को कसकर पकड़ता है और जल्दी-जल्दी दोनों ओर धूल उड़ाता हुआ साफ करता है और स्थान भी साफ नहीं होता। मोहचरित पुरुष झाड़ को शिथिलता के साथ पकड़ कर इधर-उधर चलाता है;स्थान भी साफ नहीं होता। इसी प्रकार अन्य क्रियाओं के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। रागचरित पुरुष कार्य में कुशल होता है; सुन्दर तथा समरूप से सावधानता के साथ कार्य करता है। द्वेषचरित पुरुष का कार्य स्थिर, स्तब्ध और विषम होता है और मोहचरित पुरुष कार्य में अनिपुण, व्याकुल, विषम और अयथार्थ होता है। सभागता होने के कारण श्रद्धाचरितादि पुरुषों की वृत्ति भी इसी प्रकार की होती है। . भोजन-रागचरित पुरुष को स्निग्ध और मधुर भोजन प्रिय होता है; वह धीरे-धीरे विविध रसों का आस्वाद लेते हुए भोजन करता है; अच्छा भोजन करके उसको प्रसन्नता होती है। द्वेषचरित पुरुष को रूखा और अम्ल भोजन प्रिय होता है; वह विना रसों का स्वाद लिये जल्दी-जल्दी भोजन करता है; यहि वह कोई बुरे स्वाद का पदार्थ खाता है तो उसे अप्रसन्नता होती है। मोहचरित पुरुष की रुचि अनियत होती है; वह विक्षिसचित्त पुरुष की तरह नाना प्रकार के वितर्क करते हुए भोजन करता है। इसी प्रकार श्रद्धाचरितादि पुरुष की वृत्ति होती है। दर्शन-रागचरित पुरुष थोड़ा भी मनोरम रूप देखकर विस्मित भाव से चिरकाल तक उसका अवलोकन करता रहता है; थोड़ा भी गुण हो तो वह उसमें अनुरक्त हो जाता है; वह यथार्थ दोष का भी ग्रहण नहीं करता। उस मनोरम रूप के पास से हटने की उसकी इच्छा नहीं होती। द्वेषचरित पुरुष थोड़ा अमनोरम रूप देखकर खेद को प्राप्त होता है। वह उसकी ओर देर तक देख नहीं सकता। अल्प भी दोष उसकी दृष्टि से बचकर नहीं जा सकता। यथार्थ गुण का भी वह ग्रहण नहीं करता। मोहचरित पुरुष जब कोई रूप देखता है तो वह उसके विषय में उपेक्षाभाव रखता है; दूसरों को निन्दा करते देखकर निन्दा और प्रशंसा करते देखकर प्रशंसा करता है। श्रद्धाचरितादि पुरुषों की वृत्ति भी इसी प्रकार की होती है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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