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विसुद्धिमग्ग होता है। पृथिवी तथा जलधातुं की उत्सन्नता से पुद्गल मोहचरित होता है। तेज और वायुधातु की उत्सत्रता से पुद्गल द्वेषचरित होता है। चारों धातुओं के समान भाग में रहने से पुद्गल रागचरित होता है। दोषों में श्लेष्मा की अधिकता से पुद्गल रागचरित या मोहचरित होता है; वात की अधिकता से मोहचरित या रागचरित होता है। इन वचनों में श्रद्धाचर्या आदि में से एक का भी निदान नहीं कहा गया है। दोष-नियम में केवल राग और मोह का ही निदर्शन किया गया है; इनमें भी पूर्वापरविरोध देखा जाता है। इसी प्रकार धातुओं में उक्त पद्धति से उत्सन्नता का नियम नहीं पाया जाता। पूर्वाचरण के आधार पर जो चर्या का नियमन बताया गया है उसमें भी ऐसा नहीं है कि सब केवल रागचरित हों या द्वेष-मोह-चरित हों। इसलिए यह वचन अपरिच्छिन्न हैं। ___ . अट्ठकथाचार्यों के मतानुसार चर्याविनिश्चय 'उस्सदकित्तन' में इस प्रकार वर्णित हैपूर्व-जन्मों में प्रवृत्त लोभ-अलोभ द्वेष-अद्वेष, मोह-अमोह, हेतुवश प्रतिनियत रूप में सत्त्वों में लोभ आदि की अधिकता पायी जाती है। कर्म करने के समय जिस मनुष्य में लोभ बलवान् होता है और अलोभमन्द होता है, अद्वेष और अमोह बलवान होते हैं तथा द्वेष-मोह मन्द होते हैं, उसका मन्द अलोभ लोभ को अभिभूत नहीं कर सकता; किन्तु अद्वेष-अमोह, बलवान् होने के कारण द्वेष मोह को अभिभूत करते हैं। इसलिये जब वह मनुष्य इन कर्मों के वश प्रतिसन्धि का लाभ करता है तो वह लुब्ध, सुखशील, क्रोधरहित और प्रज्ञावान् होता है। कर्म करने के समय जिसके लोभ-द्वेष बलवान् होते हैं, अलोभ-अद्वेष मन्द होते हैं, अमोह बलवान् होता है और मोह मन्द होता है वह लुब्ध और दुष्ट परन्तु प्रज्ञावान् होता है। कर्म करने के समय जिसके लोभ-मोह-अद्वेष बलवान् होते हैं और इतर मन्द होते हैं वह लुब्ध, मन्द बुद्धिवाला, सुखशील
और क्रोधरहित होता है। कर्म करने के समय जिसके लोभ द्वेष मोह बलवान् होते हैं अलोभादि मन्द होते हैं, वह लुब्ध,दुष्ट और मूढ़ होता है। कर्म करने के समय जिसके अलोभ द्वेष मोह बलवान् होते हैं इतर मन्द होते हैं, वह अलुब्ध, दुष्ट और मन्द बुद्धिवाला होता है। कर्म करने के समय जिस सत्व के अलोभ अद्वेष मोह बलवान् होते हैं इतर मन्द होते हैं, वह अलुब्ध, अदुष्ट और मन्दबुद्धिवाला होता है। कर्म करते समय जिसके अलोभ, द्वेष और अमोह बलवान् होते हैं इतर मन्द होते है वह अलुब्ध, प्रज्ञावान् और दुष्ट होता है। कर्म करने के समय जिसके अलोभ अद्वेष और अमोह तीनों बलवान् होते हैं और लोभ आदि मन्द होते हैं वह अलुब्ध, अदुष्ट और प्रज्ञावान् होता है।
__ यहाँ जिसे लुब्ध कहा है वह रागचरित है; जिसे दुष्ट या मन्द बुद्धिवाला कहा है वह यथाक्रम द्वेषचरित या मोहचरित है; प्रज्ञावान् बुद्धिचरित है; अलुब्ध, अदुष्ट, प्रसन्न प्रकृतिवाला होने के कारण श्रद्धाचरित है। इस प्रकार लोभादि में से जिस किसी द्वारा अभिसंस्कृत कर्मवश प्रतिसन्धि होती है उसे चर्या का निदान समझना चाहिये।
__ अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार जाना जाय कि यह पुद्गल रागचरित है ? इत्यादि। इसका निश्चय ईर्यापथ (ईर्यापथ-वृत्ति), कृत्य, भोजन, दर्शन आदि तथा धर्म-प्रवृत्ति (चित्त की विविध अवस्थाओं की प्रवृत्ति) द्वारा होता है।
इंयांपथ-जो रागचरित होता है उसकी गति अकृत्रिम, स्वाभाविक होती है। वह चतुरभाव से धीरे-धीरे पद-निक्षेप करता है। वह समभाव से पैर रखता और उठाता है; उसके पादतल का मध्यभाग भूमि का स्पर्श नहीं करता। जो द्वेषचरित है वह जब चलता है तब ज्ञात. होता है मानो भूमि को खोदता हुआ सहसा पैर रखता है और उठाता है। पादनिक्षेप के समय