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________________ अन्तरङ्गकथा २७ जैसे राग-मोहचर्या, राग-द्वेषचर्या, द्वेष-मोहचर्या और राग-द्वेष-मोहचर्या। इसी प्रकार श्रद्धादि चर्याओं के परस्पर सम्प्रयोग. और सन्निपात से श्रद्धा-बुद्धिचर्या, श्रद्धा-वितर्कचर्या, बुद्धिवितर्कचर्या, श्रद्धा-बुद्धि-वितर्कचर्या-इन चार अन्य चर्याओं को भी मानते हैं। इस प्रकार इनके मत में समग्र चौदह चर्याएँ होती हैं। यदि हम रागादि का श्रद्धादि चर्याओं से सम्प्रयोग करें तो अनेक चर्याएँ होती हैं। इस प्रकार चर्याओं की तिरसठ और इससे भी अधिक संख्या हो सकती है। इसलिये संक्षेप से छह ही मूलचर्या जानना चाहिये। मूलचर्याओं के प्रभेद से छह प्रकार के पुद्गल होते हैं-रागचरित, द्वेषचरित, मोहचरित, श्रद्धाचरित, बुद्धिचरित, वितर्कचरित। जिस समय रागचरित पुरुष की कुशल में अर्थात् शुभकर्मों में प्रवृत्ति होती है उस समय श्रद्धा बलवती होती है; क्योंकि श्रद्धा-गुण राग-गुण का समीपवर्ती है। जिस प्रकार अकुशल पक्ष में रागी की स्निग्धता और अरूक्षता पायी जाती हैं उसी प्रकार कुशल पक्ष में राग की स्निग्धता और अरूक्षता पायी जाती है। श्रद्धा प्रसाद-गुणवश स्निग्ध है और राग रखन-गुणवश स्निग्ध है। यथा राग काम्य वस्तुओं का पर्येषण करता है उसी प्रकार श्रद्धा शीलादि गुणों का पर्येषण करती है। यथा राग अहित का परित्याग नहीं करता, उसी प्रकार श्रद्धा हित का परित्याग नहीं करती। इस प्रकार हम देखते हैं कि भिन्न भिन्न स्वभाव के होते हुए भी रागचरित और श्रद्धाचरित की सभागता (तुल्यता) है। . इसी तरह द्वेषचरित और बुद्धिचरित की तथा मोहचरित और वितर्कचरित की सभागता है। जिस समय द्वेषचरित पुरुष की कुशल में प्रवृत्ति होती है उस समय प्रज्ञा बलवती होती है; क्योंकि प्रज्ञा-गुण द्वेष का समीपवर्ती है। जिस प्रकार अकुशल पक्ष में द्वेष व्यापादवश स्नेहरति होता है, आलम्बन में उसकी आसक्ति नहीं होती, उसी प्रकार यथाभूत स्वभाव के अवबो के कारण कुशलपक्ष में प्रज्ञा की आसक्ति नहीं होती। यथा द्वेष अभूत दोष की भी पर्येषणा करता है उसी प्रकार प्रज्ञा यथाभूत दोष का प्रविचय करती है। यथा द्वेषचरित पुरुष सत्त्वों का परित्याग करता है उसी प्रकार बुद्धिचरित पुरुष संस्कारों का परित्याग करता है। इसलिये स्वभाव की विभिन्नता होते हुए भी द्वेषचरित और बुद्धिचरित की सभागता है। जब मोहचरित पुरुष कुशल कों के उत्पाद के लिये यत्नवान् होता है तो नाना प्रकार के वितर्क और मिथ्या संकल्प उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वितर्क-गुण मोह-गुण का समीपवर्ती है। जिस प्रकार व्याकुलता के कारण मोह अनवस्थित है उसी प्रकार नाना प्रकार के विकल्प-परिकल्प के कारण वितर्क अनवस्थित है। जिस प्रकार मोह चञ्चल है उसी प्रकार वितर्क में चपलता है। इस प्रकार स्वभाव की विभिन्नता होते हुए भी मोहचरित और वितर्कचरित की सभागता है। ___कुछ लोग इन छह चर्याओं के अतिरिक्त तृष्णा, मान और दृष्टि को भी चर्या में परिगणित करते हैं। परन्तु तृष्णा और मान राग के अन्तर्गत हैं और दृष्टि मोह के अन्तर्गत है। इन छह चर्याओं का क्या निदान है? कुछ का कहना है कि पूर्व जन्मों का आचरण और धातु-दोष की उत्सन्नता पहली तीन चर्याओं की नियामक है। इनका कहना है कि जिसने पूर्व जन्मों में अनेक शुभ कर्म किये है और जो इष्टप्रयोग-बहुल रहा है या जो स्वर्ग से च्युत हो इस लोक में जन्म लेता है वह रागचरित होता है। जिसने पूर्व जन्मों में छेदन, वध, बन्धन आदि अनेक वैरकर्म किये हैं या जो निरय या नाग-योनि से च्युत हो इस लोक में उत्पन्न होता है यह द्वेषचरित होता है और जिसने पूर्व जन्मों में अधिक परिमाण में निरन्तर मद्यपान किया है और जो श्रुतविहीन है या जो निकृष्ट पशुयोनि से च्युत हो इस लोक में उत्पन्न होता है, वह मोहचरित.
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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