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________________ विसुद्धिमग्ग प्रकार अन्तेवासी आचार्य की सेवा करता है उसी प्रकार भिक्षु को कर्मस्थानदायक की सेवा करनी चाहिये। समय से उठकर आचार्य को दन्तकाष्ठ देना चाहिये, मुंह धोने के लिये तथा स्नान के लिये जल देना चाहिये। और पात्र साफ करके प्रातराश के लिये यवागू देना चाहिये। इस प्रकार अपनी सेवा से आचार्य को प्रसन्न कर जब वह आने का कारण पूछे तब बताना चाहिये। यदि आचार्य आने का कारण न पूछे और सेवा लें तो एक दिन अवसर पाकर आने का कारण स्वयं बताना चाहिये। यदि वह प्रातःकाल बुलावें तो प्रातःकाल जाना चाहिये। यदि उस समय किसी रोग की बाधा हो तो निवेदन कर दूसरा उपयुक्त समय नियत करामा चाहिये। याचना के पूर्व आचार्य के समीप आत्मभाव का विसर्जन करना चाहिये। सदा आचार्य की आज्ञा में रहना चाहिये; स्वेच्छाचारी न होना चाहिये। यदि आचार्य बुरा-भला कहें तो क्रोध नहीं करना चाहिये। यदि भिक्षु आचार्य के समीप आत्मभाव का परित्याग नहीं करता और विना पूछे जहाँ कहीं इच्छा होती है चला जाता है तो आचार्य रुष्ट होकर धर्म का उपदेश नहीं करते और गम्भीर कर्मस्थानउपाय की शिक्षा नहीं देते। इस प्रकार भिक्षु शासन में प्रतिष्ठा नहीं पाता। इसके विपरीत यदि वह आचार्य के वशवर्ती और अधीन रहता है तो शासन में उसकी वृद्धि होती है। भिक्षु को अलोभादि छह सम्पन्न अध्याशयों से भी संयुक्त होना चाहिये। सम्यक्सम्बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध आदि जिस किसी ने विशेषता प्राप्त की है उसने इन्हीं छह सम्पन्न अध्याशयों द्वारा प्राप्त की है। 'अध्याशय' अभिनिवेश को कहते हैं। 'अध्याशय' दो प्रकार के हैं-विपन्न, सम्पन्न । रुष्यता आदि जो मिथ्याभिनिवेश-निश्रित हैं विपन्न अध्याशय कहलाते हैं। सम्पन्न अध्याशय दो प्रकार के हैं-वर्त अर्थात् संसारनिश्रित और विवर्तनिश्रित । यहाँ विवर्तनिश्रित अध्याशय से अभिप्राय सम्पन्न अध्याशय छह आकार के हैं-अलोभ, अद्वेष, अमोह, नैष्कर्म्य, प्रविवेक और निस्सरण। इन छह अध्याशयों से बोधि का परिपाक होता है। इसलिये इनका आसेवन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त साधक का सङ्कल्प समाधि तथा निर्वाण के लाभ के लिये दृढ़ होना चाहिये। जब विशेष गुणों से सम्पन्न साधक कर्मस्थान की याचना करता है तो आचार्य चर्या की परीक्षा करता है। जो आचार्य परिचित्त-ज्ञानलाभी हैं वे चित्ताचार का सूक्ष्म निरीक्षण कर स्वयं ही साधक के चरित का परिचय प्राप्त कर लेता है पर जो इस ऋद्धि-बल से समन्वागत नहीं है वह विविध प्रश्नों द्वारा साधक का चर्या जानने की चेष्टा करता है। आचार्य साधक से पूछता है कि वह कौन से धर्म हैं जिनका तुम प्रायः आचरण करते हो? क्या करने से तुम सुखी होते हो? किस कर्मस्थान में तुम्हारा चित्त लगता है ? इस प्रकार चर्या का विनिश्चय कर आचार्य चर्या के अनुकूल कर्मस्थान का वर्णन करता है। साधक कर्मस्थान का अर्थ और अभिप्राय भली प्रकार जानने की चेष्टा करता है। वह आचार्य के व्याख्यान को मनोयोगपूर्वक आदरसहित सुनता है। ऐसे ही साधक का कर्मस्थान सुगृहीत होता है। चर्या के कितने प्रभेद हैं, कि चर्या का क्या निदान है, कैसे जाना जाय कि अमुक मनुष्य अमुक चरितवाला है और किस चरित के लिये कौन से शयनासन आदि उपयुक्त हैं? इन विषयों पर यहां विस्तार से विचार किया जायगा। चर्या का अर्थ है प्रकृति, अन्य धर्मों की अपेक्षा किसी विशेष धर्म की उत्सत्रता अर्थात् अधिकता। चर्या छह हैं-रागचर्या, द्वेषचर्या, मोहचर्या, श्रद्धाचर्या, बुद्धिचर्या और वितर्कवर्या । सन्तान में जब अधिक भाव से राग की प्रवृत्ति होती है तब रागचर्या कही जाती है। कुछ लोग सम्प्रयोग और सनिपात वश रागादि की चार और चर्याएँ मानते है;
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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