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अन्तरङ्गकथा
इसलिये भगवान् के रहते उनके समीप ग्रहण करने से कर्मस्थान सुगृहीत होता है। संक्षेप में कर्मस्थान ग्रहण करने की वही विधि है, जो हम पीछे 'धुतङ्गनिद्देस' में बता चुके हैं। इन चालीस कर्मस्थानों को पालि में - 'पारिहारिय कम्मट्ठान' कहते हैं। क्योंकि इनमें से जो चर्या के अनुकूल होता है उसका नित्य परिहरण अर्थात् अनुयोग करना पड़ता है। पारिहारिक कर्मस्थान के अतिरिक्त 'सब्बत्थक कम्मट्ठान' (अर्थात् सर्वार्थक कर्मस्थान) भी है। इसे सर्वार्थक इसलिये कहते हैं क्योंकि यह सबको लाभ पहुँचाता हैं । भिक्षुसङ्घ आदि प्रति मैत्रीभावना, मरण-स्मृति और कुछ आचार्यों के मतानुसार अशुभ- संज्ञा भी सर्वार्थक कर्मस्थान कहलाते हैं। जो भिक्षु कर्मस्थान में नियुक्त होते हैं उसे पहिले सीमा में रहनेवाले भिक्षुसङ्घ के प्रति मैत्री प्रदर्शित करनी चाहिये। उससे मैत्री भावना इस प्रकार करनी चाहिये'सीमा में रहनेवाले भिक्षु सुखी हों, उनका कोई व्यापाद न करे'। धीरे-धीरे उसे इस भावना का इस प्रकार विस्तार करना चाहिये- सीमा के भीतर वर्तमान देवताओं के प्रति, तदनन्तर उस ग्राम के निवासियों के प्रति जहाँ वह भिक्षाचर्या करता है, तदनन्तर राजा तथा अधिकारी वर्ग के प्रति, तदनन्तर सब सत्त्वों के प्रति मैत्री भावना का अनुयोग करना चाहिये। ऐसा करने से उसके सहवासी उसके साथ सुखपूर्वक निवास करते हैं। देवता तथा अधिकारी उसकी रक्षा करते हैं। तथा उसकी आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं, लोगों का वह प्रियपात्र होता है और सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है । मरणस्मति द्वारा वह निरन्तर इस बात का चिन्तन करता रहता है कि मुझे मरना अवश्यमेव है । इसलिये वह कुपथ का गामी नहीं होता तथा वह संसार में लीन और आसक्त नहीं होता । जब चित्त अशुभ-संज्ञा से परिचित होता है (अर्थात् जब चित्त यह देखता है कि चाहे मृत हो या जीवमान, शरीर शुभ भाव से वर्जित है और इसका स्वभाव अशुचि है ) तब दिव्य आलम्बन का लोभ भी चित्त को ग्रस्त नहीं करता । बहु उपकारक होने से यह सबको अभिप्रेत है। इसलिये इन्हें सर्वार्थक कर्मस्थान कहते हैं।
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इन दो प्रकार के कर्मस्थानों के ग्रहण के लिये कल्याणमित्र के समीप जाना चाहिये । यदि एक ही विहार में कल्याणमित्र का वास हो तो अत्युत्तम है। अन्यथा जहाँ कल्याणमित्र का आवास हो वहाँ जाना चाहिये। अपना पात्र और चीवर स्वयं लेकर प्रस्थान करना चाहिये। मार्ग में जो विहार पड़े वहाँ वर्त- प्रतिवर्त (कर्तव्य-सेवा-आचार) सम्पादित करना चाहिये। आचार्य का वासस्थान पूछकर सीधे आचार्य के पास जाना चाहिये । यदि आचार्य अवस्था में छोटा हो तो उसे अपना पात्र - चीवर ग्रहण न करने देना चाहिये। यदि अवस्था में अधिक हो तो आचार्य को वन्दना कर खड़े रहना चाहिये। जब आचार्य कहे कि पात्र - चीवर भूमि पर रख दो तब उन्हें भूमि पर रख देना चाहिये । और यदि वह जल पीने के लिये पूछे तो इच्छा रहते जल पीना चाहिये । यदि पैर धोने को कहें तो पैर न धोना चाहिये। क्योंकि यदि जल आचार्य द्वारा आहत हो तो वह पादक्षालन के लिये अनुपयुक्त होगा । यदि आचार्य कहें कि जल दूसरे द्वारा लाया गया है तो उसको ऐसे स्थान में बैठकर पैर धोना चाहिये जहाँ आचार्य उसे न देख सकें। यदि आचार्य तैल दें तो उठकर दोनों हाथों से आदरपूर्वक उसे ग्रहण करना चाहिये। पर पहिले पैरों में न मलना चाहिये, क्योंकि यदि आचार्य के गात्राभ्यञ्जन के लिये वह तैल हो तो पैर में मलने के लिये अनुपयुक्त होगा। इसलिये पहिले सिर और कन्धों में तैल लगाना चाहिये। जब आचार्य कहें कि सब अङ्गों में लगाने का यह तैल है तो थोड़ा सिर में लगाकर पैर में लगाना चाहिये। पहिले ही दिन कर्मस्थान की याचना न करनी चाहिये। दूसरे दिन से आचार्य की सेवा करनी चाहिये। जिस
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