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विसुद्धिमग्ग कर्म का अर्थ है 'नवकर्म'। अर्थात् विहार का अभिसंस्कार (मरम्मत आदि)। जो नवकर्म कराता है उसे श्रमिकों के कार्य का निरीक्षण करना पड़ता है। उसके लिये सर्वदा अन्तराय है। इस अन्तराय का नाश करना चाहिये। यदि थोड़ा ही काम अवशिष्ट रह गया हो तो काम को समाप्त कर श्रमण-धर्म में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। यदि अधिक कार्य बाकी हो तो सङ्घभारहारक भिक्षुओं को सौंप देना चाहिये। यदि ऐसा कोई प्रबन्ध न हो सके तो सङ्घ का परित्याग कर अन्यत्र चला जाना चाहिये।
* मार्ग-गमन भी कभी-कभी अन्तराय होता है। जिसे कहीं किसी की प्रव्रज्या के लिये जाना है या जिसे कहीं भी लाभ-सत्कार मिलना है, यदि वह अपनी इच्छा को पूर्ण किये विना अपने चित्त को स्थिर नहीं रख सकता तो उससे श्रमण-धर्म सम्यक् रीति से सम्पादित नहीं हो सकता। इसलिये उसे गन्तव्य स्थान पर जाकर अपना मनोरथ पूर्ण करने के अनन्तर श्रमणधर्म में उत्साह के साथ प्रवृत्त होना चाहिये।
. ज्ञाति भी कभी-कभी अन्तराय हो जाते हैं। विहार में आचार्य, उपाध्याय, अन्तेवासिक, समानोपाध्यायक और समानाचार्यक तथा घर में माता, पिता, भ्राता आदि ज्ञाति' होते हैं। जब ये रुग्ण होते हैं तब ये अन्तराय होते हैं। क्योंकि भिक्षु को इनकी सेवा-शुश्रूषा करनी पड़ती है। उपाध्याय, प्रव्रज्याचार्य, उपसम्पदाचार्य, ऐसे अन्तेवासिक जिनकी उसने प्रव्रज्या या उपसम्पदा की है, तथा एक ही उपाध्याय के अन्तेवासी के रुग्ण होने पर उनकी सेवा उस समय तक करना उसका कर्तव्य है जब तक वह नीरोग न हो। माता-पिता उपाध्याय के समान हैं। यदि उनके पास औषध न हो तो अपने पास से देना चाहिये; यदि अपने पास भी न हो तो भिक्षा माँगकर देना चाहिये।
आबाध भी अन्तराय है। यदि भिक्षु को कोई रोग हुआ तो श्रमणधर्म के पालन में अन्तराय होता है। चिकित्सा द्वारा रोग का उपशम करने से या उसकी उपेक्षा करने से यह अन्तराय नष्ट होता है।
ग्रन्थ भी अन्तराय होता है। जो सदा स्वाध्याय में व्याप्त रहता है उसी के लिये ग्रन्थ अन्तराय है, दूसरों के लिये नहीं।
ऋद्धि से पृथग्जन की ऋद्धि अभिप्रेत है। यह ऋद्धि विपश्यना (प्रज्ञा) में अन्तराय है, समाधि में नहीं; क्योंकि जब समाधि की प्राप्ति होती है तब ऋद्धि-बल की प्राप्ति होती है। इसलिये जो विपश्यना का अर्थी है उसे ऋद्धि अन्तराय का उपच्छेद करना चाहिये।
इन विनों का उपच्छेद कर भिक्षु को 'कर्मस्थान' ग्रहण के लिये कल्याणमित्र के पास जाना चाहिये। 'कर्मस्थान' योग के साधन को कहते हैं। योगानुयोग ही कर्म है। इसका स्थान अर्थात् 'निष्पत्ति हेतु' कर्मस्थान है। इसीलिये कर्मस्थान उसे कहते हैं जिसके द्वारा योग-भावना की निष्पत्ति होती है।
कर्मस्थान अर्थात् समाधि के चालीस साधन हैं। इन चालीस साधनों में से किसी एक का, जो अपनी चर्या के अनुकूल हो, ग्रहण करना पड़ता है। कर्मस्थान का दायक कल्याणमित्र कहलाता है; क्योंकि वह उसका एकान्तहितैपी है। कल्याणमित्र गम्भीर कथा का कहने वाला होता है तथा अनेक गुणों से समन्वागत होता है। बुद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणमित्र नहीं है। संयुत्तनिकाय में भगवान् ने स्वयं कहा है कि जीव मुझ कल्याणमित्र की शरण में आकर जन्म के बन्धन से मुक्त होते हैं।