________________
२३
अन्तरङ्गकथा वितर्क आलम्बन में चित्त का आरोप करता है। आलम्बन के पास चित्त का आनयन 'वितर्क' कहलाता है। आलम्बन का यह स्थूल आभोग है। वितर्क की प्रथमोत्पत्ति के समय चित्त का परिस्पन्दन होता है। वितर्क विचार का पूर्वगामी है। विचार सूक्ष्म है। विचार की वृत्ति शान्त होती है और इसमें चित्त का अधिक परिस्पन्दन नहीं होता। जब प्रीति उत्पन्न होती है तब सबसे पहिले शरीर में रोमाञ्च होता है। धीरे-धीरे यह प्रीति बारम्बार शरीर को अवक्रान्त करती है। जब प्रीति का बलवान् उद्वेग होता है तो प्रीति शरीर को ऊर्ध्व उत्क्षिप्त कर आकाश-लङ्कन के लिये समर्थ करती है, धीरे-धीरे सकल शरीर प्रीति से सर्वरूपेण व्याप्त हो जाता है, मानों पर्वत-गुहा से एक महान् जलप्रपात परिस्फुट होकर तीव्र वेग से प्रवाहित हो रहा है। प्रीति के परिपाक से काय-प्रश्रब्धि और चित्त-प्रश्रब्धि होती है। प्रश्रब्धि (शान्ति) के परिपाक से काय और चित्त-सुख होता है। सुख के परिपाक से क्षणिक, उपचार और अर्पणा इस त्रिविध समाधि का परिपूरण होता है। इष्ट आलम्बन के प्रति लाभ से जो तुष्टि होती है उसे 'प्रीति' कहते हैं। प्रतिलब्ध रस के अनुभव को 'सुख' कहते हैं। जहाँ प्रीति है वहाँ सुख है पर जहाँ सुख है वहाँ नियम से प्रीति नहीं है। प्रथम ध्यान में उक्त पाँच अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है। धीरे-धीरे अङ्गों का अतिक्रमण होता है और अन्तिम ध्यान में समाधि उपेक्षासहित होती है।
जिसको लौकिक समाधि अभीष्ट हो उसको सुपरिशुद्ध शील में प्रतिष्ठित होकर सबसे पहिले विनों का नाश (पलिबोध) करना चाहिये।
पलिबोध- आवास, कुल, लाभ, गण, कर्म, मार्ग, ज्ञाति, आबाध, ग्रन्थ और ऋद्धियह दश 'पलिबोध' कहलाते हैं।
जो भिक्षु अभी नया-नया किसी कार्य में उत्सुकता रखता है या बहुविध सामग्री संग्रह करता है या जिसका चित्त किसी कारणवश अपने आवास में प्रतिबद्ध है, आवास उसके लिये अन्तराय (विध्न) है।
कुल से तात्पर्य ज्ञाति-कुल या सेवक के कुल से है। साधारणतया दोनों विघ्नकारी हैं। कुछ ऐसे भिक्षु होते हैं जो कुल के मनुष्यों के विना धर्मश्रवण के लिये भी पास के विहार में नहीं जाते। वह उन श्रद्धालु उपासकों के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होते हैं जिनसे उनको लाभ-सत्कार मिलता है। ऐसे ही भिक्षुओं के लिये कुल अन्तराय है; दूसरों के लिये नहीं।
लाभ चार प्रत्ययों को कहते हैं। प्रत्यय (पच्चय) ये हैं-चीवर, पिण्डपात, शयनासन और ग्लानप्रत्ययभेषजा भिक्षु को इन चार वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। कभी-कभी ये भी अन्तराय हो जाते हैं। पुण्यवान् भिक्षु का लाभ-सत्कार प्रचुर परिमाण में होता है। उसको सदा लोग घेरे रहते हैं। जगह-जह से उसको निमन्त्रण आता है। उसको निरन्तर दान का अनुमोदन करना पड़ता है और दाताओं को धर्म का उपदेश देना पड़ता है। श्रमण-धर्म के लिये उसको अवकाश नहीं मिलता। ऐसे भिक्षु को उस स्थान में जाकर रहना चाहिये जहाँ उसे कोई न जानता हो और जहाँ वह एकान्तसेवी हो सके।
गण में रहने से लोग अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते हैं,या उसके पास पाठ के लिये आते हैं। इस प्रकार श्रमण-धर्म के लिये अवकाश नहीं मिलता। इस अन्तराय का उपच्छेद इस प्रकार होना चाहिये- यदि थोड़ा ही पाठ रह गया हो तो उसे समाप्त कर अरण्य में प्रवेश करना चाहिये, यदि पीठ बहुत अशिष्ट हो तो अपने शिष्यों को समीपवनी किसी दूसरे गणवाचक के अधीन करना चाहिये। यदि दूसरा गणवाचक पास में न मिले तो शिष्यों से अवकाश ले श्रमणधर्म में प्रवृत्त हो जाना चाहिये।