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विसुद्धिमग्ग में से सोना छोड़कर सर्वदा (दिन-रात) बैठा रहने वाला भिक्षु 'नैषधक' कहलाता है। इस व्रत को पालन करना 'नैषधकाङ्ग' कहलाता है।
ये तेरहों धुताङ्ग प्रत्येक साधक को पालन करना आवश्यक नहीं हैं, अपितु जिस साधक के राग, द्वेष या मोह अधिक संवृद्ध हों, उसी के लिये ये धुतान आवश्यक बताये गये हैं। क्योंकि ये अत्यधिक कायक्लेशदायक हैं, अत: आचार्य ने इन धुताङ्गों को प्रत्येक साधक के लिये आवश्यक नहीं माना। मज्झिमा पटिपदा मानने वाली बौद्ध साधना में यह आवश्यक हो भी कैसे सकता था!
३. कम्मट्ठानग्रहणनिर्देश समाधि बहुविध है। यदि सब समाधियों का वर्णन किया जाय तो अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि नहीं होगी और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार विक्षेप उपस्थित हो। इसलिये यहाँ केवल अभिप्रेत अर्थ का ही उल्लेख किया जायगा। आचार्य को यहाँ लौकिक समाधि ही अभिप्रेत है। काम, रूप और अरूप भूमियों की कुशल-चित्तैकाग्रता को लौकिक समाधि कहते हैं। जो एकाग्रता आर्यमार्ग से सम्प्रयुक्त होती है, उसे लोकोत्तर समाधि कहते हैं। लोकोत्तर समाधि का भावना-प्रकार प्रज्ञा के भावना-प्रकार में संगृहीत है। प्रज्ञा के सुभावित होने से लोकोत्तर समाधि की भावना होती है। इस लोकोत्तर समाधि की भावना के विषय में आगे कहा जायगा। यहाँ हम केवल लौकिक समाधि का ही सविस्तर वर्णन करेंगे।
हमारे अभिप्रेत अर्थ में समाधि 'कुशलचित्त की एकाग्रता' को कहते हैं। अर्थात् चित्त की वह एकाग्रता जो दोषरहित है और जिसका विपाक सुखमय है। इस लौकिक समाधि के मार्ग को शमथ-यान कहते हैं। लोकोत्तर समाधि (प्रज्ञा) का मार्ग विपश्यना-यान कहलाता है।
इसके पूर्व कि हम लौकिक समाधि के भावना-प्रकार का विस्तार से वर्णन करें, हम इस स्थान पर शमथ-मार्ग का संक्षेप में निरूपण करना आवश्यक समझते हैं।
शमथ का अर्थ है-पाँच नीवरणों अर्थात् विनों का उपशम। विघ्नों के शमन से चित्त की एकाग्रता होती है। शमथ का मार्ग लौकिक समाधि का मार्ग है। विनों के अर्थात् अन्तरायों के नाश से ही लौकिक समाधि में प्रथम ध्यान का लाभ होता है। प्रथम ध्यान में पाँच अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है। दूसरे तीसरे ध्यान में पांच अङ्गों का अतिक्रमण होता है।
नीवरण इस प्रकार हैं-कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यान-मृद्ध, औद्धत्य-कौकृत्य, विचिकित्सा। 'कामच्छन्द' 'विषयों में अनुराग' को कहते हैं, जब चित्त नाना विषयों से प्रलोभित होता है तो एक आलम्बन में समाहित नहीं होता। व्यापाद' हिंसा को कहते हैं। यह प्रीति का प्रतिपक्ष है। 'स्त्यान' चित्त की अकर्मण्यता और 'मिद्ध' आलस्य को कहते हैं। वितर्क स्त्यान-मिद्ध का प्रतिपक्ष है। औद्धत्य का अर्थ है अव्यवस्थित-चित्तता और कौकृत्य 'खेद', 'पश्चात्ताप' को कहते हैं। सुख औद्धत्य-कौकृत्य का प्रतिपक्ष है। विचिकित्सा संशय' को कहते हैं। विचार विचिकित्सा का प्रतिपक्ष है। विषयों में लीन होने के कारण समाधि में चित्त की प्रतिष्ठा नहीं होती। हिंसाभाव से अभिभूत चित्त की निरन्तर प्रवृत्ति नहीं होती। स्त्यान-मृद्ध से अभिभूत चित्त अकर्मण्य होता है। चित्त के अनवस्थित होने से और खेद से शान्ति नहीं मिलती और चित्त प्रान्त रहता है। विचिकित्सा से उपहत चित्त ध्यान का लाभ करानेवाले मार्ग में आरोहण नहीं करता। इसलिये इन विनों का नाश करना चाहिये।
नीवरणों के नाश से ध्यान का लाभ और ध्यान के पांच अङ्गवितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता का प्रादुर्भाव होता है।