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६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस
२६१ पीळकादीनं मुखतो पग्घरमानकाले लब्भति। तस्मा तं दिस्वा "लोहितकपटिलं लोहितकपटिकूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। एत्थ उग्गहनिमित्तं, वातप्पहता विय रत्तपटाका, चलमानाकरं उपट्ठाति। पटिभागनिमित्तं पन सन्निसिन्नं हुत्वा उपट्ठाति।
___३९. पुळवकं द्वीहतीहच्चयेन कुणपस्स नवहि वणमुखेहि किमिरासिपग्घरकाले होति । अपि च-तं सोणसिङ्गलअमनुस्सगोमहिंसहत्थिअस्सअजगरादीनं सरीरप्पमाणमेव हुत्वा सालिभत्तरासि विय तिट्ठति। तेसु यत्थ कत्थचि "पुळवकपटिकूलं पुळवकपटिलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। चूळपिण्डपातिकतिस्सत्थेरस्स हि काळदीघवापिया अन्तो हत्थिकुणपे निमित्तं उपट्ठासि। उग्गहनिमित्तं पनेत्थ चलमानं विय उपट्ठाति। पटिभागनिमित्तं सालिभत्तपिण्डो विय सन्निसिन्नं हुत्वा उपट्ठाति।
४०. अट्टिकं "सो पस्सेय्य सरीरं सीवथिकाय छड्डित्तं अट्ठिसङ्खलिकं समंसलोहितं न्हारुसम्बन्धं" (म०३-१५४) ति आदिना नयेन नानप्पकारतो वुत्तं । तत्थ यत्थ तं निक्खत्तं होति, तत्थ पुरिमनयेनेव गन्त्वा समन्ता पासाणादीनं वसेन सनिमित्तं सारम्मणं कत्वा इदं अट्टिकं ति सभावभावतो उपलक्खेत्वा वण्णादिवसेन एकादसहाकारेहि निमित्तं उग्गहेतब्बं ।
४१. लिङ्गं ति इध हत्थादीनं नामं। तस्मा हत्थपादसीसउरबाहुकटिऊरुजङ्घानं वसेन लिङ्गतो ववत्थपेतब्बं । दीघरस्सवट्टचतुरस्सखुद्दकमहन्तवसेन पन सण्ठानतो
३८. लोहितक तब मिलता है जब युद्धक्षेत्र आदि में गले हुए (पाये गये) घाव आदि के मुख से या काटे गये हाथ पैर में उत्पन्न हुए फोड़े-फुसियों के मुख से खून बहता रहता है। इसलिये उसे देखकर "लोहितक प्रतिकूल, लोहितक प्रतिकूल"-इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । यहाँ उद्ग्रहनिमित्त हवा में हिलते हुए लाल रंग के झण्डे के समान चञ्चल जान पड़ता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त स्थिर प्रतीत होता है।
३९. पुळवकनिमित्त मृत शरीर में उस समय होता है, जब दो तीन दिन बीत जाने पर शरीर के नौ (९) प्रमुख छिद्रों से समूहरूप में कृमि निकलने लगते हैं। अपि च-वह कृमियों की राशि कुत्ते, सियार, अमनुष्य, गाय, भैंस, हाथी-घोड़ा, अजगर आदि के देह-परिमाण में ही, शालि (=धान की एक प्रजाति) के भात के पिण्ड के समान होता है। उनमें से किसी के मृत शरीर में भी "पुळवक प्रतिकूल, पुळवक प्रतिकूल"-इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। चूळपिण्डपातिक तिष्यस्थविर को कालदीघवापी (श्रीलङ्का में एक स्थान) में हाथी के मृत शरीर में निमित्त जान पड़ा । यहाँ उद्ग्रहनिमित्त सचल प्रतीत होता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त शालि के भात के पिण्ड के समान स्थिर जान पड़ता है।
४०. अहिक- "मानो वह श्मशान में फेंके गये, मांस-रक्त से युक्त, नसों में बँधे हुए अस्थिकङ्काल को देख रहा हो" (म०नि०३-१५४) आदि प्रकार से अस्थिक को अनेक प्रकार से बतलाया गया है। वह जहाँ कहीं भी पड़ा हो, वहाँ पूर्व प्रकार से जाकर, चारों ओर के पत्थर आदि के अनुसार निमित्त व आलम्बन के साथ ग्रहण कर "यह अस्थिक है"-ऐसा उसके स्वभाव के अनुसार भलीभाँति विचार कर, वर्ण आदि के अनुसार, ग्यारह प्रकार का निमित्त ग्रहण करना चाहिये।
४१. किन्तु उसे "वर्ण सेवेत है" इस रूप में देखने वाले को वह निमित्त कुत्सित रूप में नहीं जान पड़ता; क्योंकि वैसे वह अवदात कसिण का ही एक भेद हो जाता है। इसलिये "अस्थिक है"इस प्रकार प्रतिकूल के रूप में ही अवलोकन करना चाहिये।
लिङ्ग का अर्थ है हाथ आदि। अतः हाथ, पैर, सिर, बाँह, कमर, जाँघ के अनुसार लिङ्ग का विचार करना चाहिये। लम्बा, नाटा. वृत्त, चतुर्भुज,छोटे, बड़े के अनुसार सण्ठान (आकार) का विचार