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विसुद्धिमग्ग ववत्थपेतब्बं । दिसोकासा वुत्तनया एव। तस्स तस्स अट्ठिनो परियन्तवसेन परिच्छेदतो ववत्थपेत्वा यदेवेत्थ पाकटं हुत्वा उपट्ठाति, तं गहेत्वा अप्पना पापुणितब्बा। तस्स तस्स अट्ठिनो निन्नट्ठानवसेन पन निन्नतो च थलतो च ववत्थपेतब्बं । पदेसवसेना पि 'अहं निन्ने ठितो अट्ठि थले, अहं थले अट्ठि निन्ने' ति पि ववत्थपेतब्बं । द्विन्नं पन अट्ठिकानं घटितघटितवानवसेन सन्धितो ववत्थपेतब्बं । अट्ठिकानं, येव अन्तरवसेन विवरतो ववत्थपेतब्बं । सब्बत्थेव पन आणं चारेत्वा इमस्मि ठानेदमट्ठी ति समन्ततो ववत्थपेतब्बं । एवं पि निमित्ते अनुपगृहन्ते नलाटट्ठिम्हि चित्तं सण्ठपेतब्बं ।
४२. यथा चेत्थ, एवं इदं एकादसविधेन निमित्तगहणं इतो पुरिमेसु पुळवकादीसु पि युज्जमानवसेन सलक्खेतब्बं ।
इदं च पन कम्मट्ठानं सकलाय पि अट्ठिकसङ्खलिकाय एकस्मि पि अट्ठिके सम्पज्जति। तस्मा तेसु यत्थ कत्थचि एकादसविधेन निमित्तं उग्गहेत्वा "अट्ठिकपटिक्कूलं अट्ठिकपटिक्कूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। इध उग्गहनिमित्तं पि पटिभागनिमित्तं पि एकसदिसमेव होती ति वुत्तं, तं एकस्मि अट्ठिके युत्तं। अट्ठिकसङ्खलिकाय पन उग्गहनिमित्ते पञ्जायमाने विवरता। पटिभागनिमित्ते परिपुण्णभावो युज्जति । एकढिके पि च उग्गहनिमित्तेन बीभच्छेन भयानकेन भवितब्बं । पटिभागनिमित्तेन पीतिसोमनस्सजनकेन, उपचारावहत्ता।
४३. इमस्मि हि ओकासे यं अट्ठकथासु वुत्तं, तं द्वारं दत्वा व वुत्तं । तथा हि तत्थ करना चाहिये। दिशा और रिक्त स्थान का विचार पहले कहे गये के अनुसार अस्थि की लम्बाईचौड़ाई (=पर्यन्त) के अनुसार अस्थिकङ्काल के परिच्छेद का विचार करके, जो भी अस्थि यहाँ स्पष्ट
पडे उसी का ग्रहण कर कमशः अर्पणा प्राप्त करनी चाहिये । प्रत्येक अस्थि के नीचे और ऊँचे स्थान (परिच्छेद) के अनुसार निचाई-ऊँचाई का विचार करना चाहिये। प्रदेश के अनुसार भी-"मै नीचे स्थित हूँ, अस्थि ऊँचाई पर है; मैं ऊँचाई पर हूँ, अस्थि निचाई पर है"-इस प्रकार भी विचार करना चाहिये। दो अस्थियों के जोड़ वाले स्थान के रूप में सन्धि का विचार करना चाहिये। स्थियों के बीच के अन्तर के रूप में विवर का विचार करना चाहिये । सबको ज्ञान का विषय बनाकर (=सर्वत्र ज्ञान का सञ्चार कर) "इस स्थान पर यह अस्थि है"-इस प्रकार समन्ततः (चारों ओर का) विचार करना चाहिये । यदि इस प्रकार भी निमित्त उपस्थित न हो तो ललाट में चित्त को स्थिर करना चाहिये।
४२. जैसे यहाँ, वैसे ही इसके पूर्व पुळवक आदि में भी उक्त ग्यारह (११) प्रकार से निमित्त की योजना कर लेनी चाहिये।
यह कर्मस्थान समग्र अस्थिकङ्काल में भी और केवल एक अस्थि में भी उत्पन्न होता है। इसलिये उनमें से किसी एक में भी ग्यारह प्रकार से निमित्त ग्रहण करके "अस्थिक प्रतिकूल, अस्थिक प्रतिकूल" इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये-यहाँ-"उद्ग्रहनिमित्त और प्रतिभागनिमित्त एक-सा ही होता है" ऐसा जो कहा गया है, वह एक अस्थि के बारे में कहा गया है। किन्तु अस्थिकङ्काल के उद्ग्रहनिमित्त में विवर जान पड़ना और प्रतिभागनिमित्त का परिपूर्ण के रूप में प्रतीत होना युक्त प्रतीत होता है। एवं उद्ग्रहनिमित्त भले ही एक ही अस्थि में हो, अवश्य ही बीभत्स, भयानक होता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त, क्योंकि उपचार को लाता है अतः, प्रीति और सौमनस्य उत्पन्न करता है।
४३ इस सन्दर्भ में जो कुछ अट्ठकथाओं में कहा गया है, वह उपर्युक्त निगमन (उपसंहार) का ।