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विसुद्धिमग्ग गन्त्वा सचे नानादिसायं पतितं पि एकावज्जनेन आपाथं आगच्छति इच्चेतं कुसलं, नो चे आगच्छति, सयं हत्थेन न परामसितब्बं । परामसन्तो हि विस्सासं आपज्जति । तस्मा आरामिकेन वा समणुद्देसेन वा अजेन वा केनचि एकट्ठाने कारेतब्बं । अलभन्तेन कत्तरयट्ठिया वा दण्डकेन वा एकङ्गलन्तरं कत्वा उपनामेतब्बं । एवं उपनामेत्वा "विच्छिद्दकपटिक्कूलं विच्छिद्दकपटिक्कूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। तत्थ उग्राहनिमित्तं मझे छिदं विय उपट्ठाति । पटिभागनिमित्तं पन परिपुण्णं हुत्वा उपट्ठाति।
३५. विक्खिायितके "विक्खायितपटिक्लं विक्खायितपटिकलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। उग्गहनिमित्तं पनेत्थ तहिं तहिं खायितसदिसमेव उपट्ठाति। पटिभागनिमित्तं परिपुण्णं व हुत्वा उपट्टाति।
३६. विक्खित्तकं पि विच्छिद्दके वुत्तनयेनेव अङ्गलङ्गलन्तरं कारेत्वा वा कत्वा वा "विक्खित्तकपटिक्कूलं विक्खित्तकपटिकूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। एत्थ उग्गहनिमित्तं पाकटन्तरं हुत्वा उपट्ठाति। पटिभागनिमित्तं पन परिपुण्णं व हुत्वा उपट्ठाति।
___३७. हतविक्खित्तकं पि विच्छिद्दके वुत्तप्पकारेसु येव ठानेसु लब्भति। तस्मा तत्थ गन्त्वा वुत्तनयेनेव अङ्गलङ्गलन्तरं कारेत्वा वा कत्वा वा "हतविक्खित्तकपटिक्कूलं हतविक्खित्तकपटिकूलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। उग्गहनिमित्तं पनेत्थ पञ्जायमानं पहारमुखं विय होति, पटिभागनिमित्तं परिपुण्णमेव हुत्वा उपट्ठाति।
३८. लोहितकं युद्धमण्डलादीसु लद्धप्पहारानं हत्थपादादीसु वा छिन्नेसु भिन्नगण्डकटवा डालते है वहाँ या जङ्गल मे सिंह-व्याघ्र आदि द्वारा लोग मार दिये जाते है वहाँ, प्राप्त होता है। इसलिये वैसे स्थान पर जाकर, यदि एक ही बार ध्यान से देखने पर, अनेक दिशाओं में छितराया हुआ भी दिखायी पड़ जाय तो अच्छा है। यदि न दिखायी पड़े, तो अपने हाथ से न छूना चाहिये, क्योंकि छूने पर विश्वास उत्पन्न हो जाता है (=वितृष्णा का भाव भी जाता रहता है)। इसलिये किसी विहारवासी, श्रामणेर या किसी अन्य के द्वारा छितराये हुए अङ्गों को एक स्थान पर करवा देना चाहिये। यदि श्रामणेर आदि न मिले, तो छडी या डण्डे से सभी अङ्गों को एक-एक अङ्गल का अन्तर रखते हुए, इकट्ठा करना चाहिये। इस प्रकार इकट्ठा करके "विच्छिद्रक प्रतिकूल, विच्छिद्रक प्रतिकूल"इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । यहाँ उद्ग्रहनिमित्त बीच में छिद्र (=युक्त) सा जान पड़ता है, किन्तु प्रतिभागनिमित्त पूर्ण के रूप में प्रतीत होता है।
३५. विक्खायितक में- "विक्खायितक प्रतिकूल, विक्खायितक प्रतिकूल" इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। किन्तु प्रतिभागनिमित्त परिपूर्ण होकर उपस्थित होता है (=पूर्ण रूप में प्रतीत होता है)।
३६. विक्खित्तक का भी एक-एक अङ्गुल की दूरी पर, विच्छिद्दक में बतलाये गये ढंग से ही, करवा कर या करके "विक्खित्तक प्रतिकूल, विक्खितक प्रतिकूल"-इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। यहाँ उद्ग्रहनिमित्त के अङ्गों के बीच का अन्तर स्पष्ट रूप से जान पड़ता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त पूर्ण रूप में जान पड़ता है।
३७. हतविक्खित्तक भी विच्छिद्दक के प्रसङ्ग में बतलाये गये स्थानों पर ही प्राप्त होता है। इसलिये वहाँ जाकर, उक्त प्रकार से एक एक अङ्गुल की दूरी पर करवा कर या करके "हतविक्खित्तक, हतविक्खित्तक"-इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । यहाँ उद्ग्रहनिमित्त घाव के मुख के समान होता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त पूर्ण रूप में ही जान पड़ता है।