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________________ ६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस २५७ एतेन समं दुल्लभं कम्मट्ठानं नाम नत्थि। तस्मा एवं नटे निमित्ते तेन भिक्खुना रत्तिट्ठाने वा दिवाट्ठाने वा निसीदित्वा-'अहं इमिना नाम द्वारेन विहारा निक्खमित्वा असुकदिसाभिमुखं मग्गं पटिपज्जित्वा असुकस्मि नाम ठाने वामं गण्हि, असुकस्मि दक्खिणं । तस्स असुकस्मि ठाने पासाणो, असुकस्मि वम्भिक-रुक्ख-गच्छ-लतानं अञ्जतरं । सोहं तेन मग्गेन गन्त्वा असुकस्मि असुभं अद्दसं, तत्थ असुकदसाभिमुखी ठत्वा एवं चेवं च समन्ता निमित्तानि सल्लक्खेत्वा एवं असुभनिमित्तं उग्गहेत्वा असुकदिसाय सुसानतो निक्खमित्वा एवरूपेन नाम मग्गेन इदं चिदं च करोन्तो आगन्त्वा इध निसन्नो' ति एवं याव पल्लङ्क आभुजित्वा निसिन्नट्ठानं, ताव गतागतमग्गो पच्चवेक्खितब्बो। तस्सेवं पच्वेक्खतो तं निमित्तं पाकटं होति, पुरतो निक्खित्तं विय उपट्ठाति। कम्मट्ठानं पुरिमाकारेनेव वीथिं पटिपजति। तेन वुत्तं-गतागतमग्गपच्चवेक्खणा वीथिसम्पटिपादनत्था ति। २८. इदानि आनिसंसदस्सावी रतनसञी हुत्वा चित्तीकारं उपट्ठपेत्वा सम्पियायमानो तस्मि आरम्मणे चित्तं उपनिबन्धती ति। एत्थ उद्धमातकपटिकूले मानसं चारेत्वा झानं निब्बत्तेत्वा झानपदट्ठानं विपस्सनं वड्डन्तो "अद्धा इमाय पटिपदाय जरामरणम्हा परिमुच्चिस्सामी" ति एवं आनिसंसदस्साविना भवितब्बं । .. यथा पन दुग्गतो पुरिसो महग्धं मणिरतनं लभित्वा 'दुल्लभं वत मे लद्धं ति तस्मि रतनसञ्जी हुत्वा गारवं जनेत्वा विपुलेन पेमेन सम्पियायमानो तं रक्खेय्य; एवमेव "दुल्लभं जङ्गली जानवरों के कारण विवश होकर श्मशान भी नहीं जा पाता, या निमित्त ही अन्तर्धान हो जाता है; क्योंकि उद्धमातक तो एक-दो दिन रहता है, बाद में विनीलक आदि हो जाता है। सभी कर्मस्थानों में इसके समान दुर्लभ कर्मस्थान दूसरा कोई नहीं। इसलिये निमित्त के इस प्रकार नष्ट हो जाने पर, उस भिक्षु को चाहिये कि रात्रिकालीन विश्रामस्थल में या दिवसकालीन स्थान में बैठकर "मैं इस नाम के विहार से निककर अमुक दिशा की ओर जाने वाले मार्ग पर चलकर अमुक नाम के स्थान पर बायें घूमा, अमुक पर दाहिने। उस मार्ग के अमुक स्थान पर पत्थर, अमुक पर दीमक की बॉबी, वृक्ष, झाड़ी-लता में से कोई एक था। मैंने उस मार्ग से जाकर अमुक नाम के स्थान पर अशुभ को देखा और वहाँ अमुक दिशा की ओर मुख किये हुए खड़े होकर ही चारों ओर के निमित्तों को ध्यानपूर्वक देखते हुए, ऐसे अशुभनिमित्त का ग्रहण कर ऐसा ऐसा करते हुए, वापस आकर यहाँ बैठा हूँ"-इस प्रकार, जब वह पद्मासन से बैठा हो, तब उसे गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। जब वह इस प्रकार प्रत्यवेक्षण करता है, तब वह निमित्त प्रकट ( स्पष्ट) होता है, सामने रखे हुए के समान जान पड़ता है। कर्मस्थान पहले के समान ही चित्तवीथि में आता है। इसलिये कहा गया है-"गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षण वीथिसम्पादन के लिये है।" २८. अब, आनिसंसदस्सावी रतनसी हुत्वा चित्तीकारं उपद्रुपेत्या सम्पियायमानो तस्मि आरम्मणे चित्तं उपनिबन्धति (गुण देखते हुए, रत्न के समान मूल्यवान् समझते हुए, आदर और प्रेम करते हुए उस आलम्बन से चित्त को बाँधता है)-यहाँ, उद्धमातक-प्रतिकूल में मन लगाकर ध्यान उत्पन्न कर, ध्यान के पदस्थान विपश्यना को बढ़ाते हुए "अवश्य ही मैं इस मार्ग के जरामरण से विमुक्त हो जाऊँगा"- इस प्रकार गुणदर्शी होना चाहिए। जिस प्रकार कोई निर्धन पुरुष अतिमूल्यवान् महाघ मणिरत्न को पाकर "अहा, मुझे दुर्लभ पदार्थ प्राप्त हुआ है" इस प्रकार उसे रत्न समझते हुए उसके प्रति आदर उत्पन्न कर, अत्यधिक प्रेम के साथ उसकी रक्षा करे, वैसे ही "मुझे यह दुर्लभ कर्मस्थान प्राप्त हुआ है, निर्धन को अतिमूल्यवान्
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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