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________________ २५६ विसुद्धिमग्ग पटिभागनिमित्तं उप्पज्जति। तत्थ मानसं चारेन्तो अप्पनं पापुणाति । अप्पनायं ठत्वा विपस्सनं वड्डेन्तो अरहत्तं सच्छिकरोति। तेन वुत्तं-एकादसविधेन निमित्तग्गाहो उपनिबन्धनत्थो ति। २७. गतागतमग्गपच्चवेक्खणा वीथिसम्पटिपादनत्था ति। एत्थ पन या गतमग्गस्स च आगतमग्गस्स च पच्चवेक्खणा वुत्ता, सा कम्मट्ठानवीथिया सम्पटिपादनत्था ति अत्थो। सचे हि इमं भिक्खं कम्मट्ठानं गहेत्वा आगच्छन्तं अन्तरामग्गे केचि 'अज्ज, भन्ते, कतमी' ति दिवसं वा पुच्छति, पहं वा पुच्छति, पटिसन्थारं वा करोन्ति, 'अहं कम्मट्ठानिको' ति तुण्हीभूतेन गन्तुं न वट्टति। दिवसो कथेतब्बो। पञ्हो विस्सज्जेतब्बो। सचे न जानाति, 'न जानामी' ति वत्तब्बं । धम्मिको पटिसन्थारो कातब्बो। तस्सेवं करोन्तस्स उग्गहितं तरुणनिमित्तं नस्सति । तस्मिं नस्सन्ते पि दिवसं पुढेन कथेतब्बमेव। पहं अजानन्तेन 'न जानामी' ति वत्तब्बं । जानन्तेन एकदेसेन कथेतुं पि वट्टति। पटिसन्थारो पि कातब्बो। आगन्तुकं पन भिक्खुं दिस्वा आगन्तुकपटिसन्थारो कातब्बो व। अवसेसानि पि चेतियङ्गणवत्त-बोधियङ्गणवत्त-उपोसथागारवत्त-भोजनसाला-जन्ताघर-आचरियुपज्झायआगन्तुक-गमिकवत्तादीनि सब्बानि खन्धकवत्तानि पूरेतब्बानेव। तस्स तानि पूरेन्तस्सा पि तं तरुणनिमित्तं नस्सति, 'पुन गन्त्वा निमित्तं गहिस्सामी' ति गन्तुकामस्सा पि अमनुस्सेहि वा वाळमिगेहि वा अधिट्टितत्ता सुसानं पि गन्तुं न सका होति, निमित्तं वा अन्तरधायति। उद्घमातकं हि एकमेव वा द्वे वा दिवसे ठत्वा विनीलकादिभावं गच्छति। सब्बकम्मट्ठानेसु खोलकर देखता है, तब उस (अवलोकन) के कारण से उद्ग्रहनिमित्त उत्पन्न होता है। उसमें मन लगाये रहने से (उसका चिन्तन-मनन करने पर) प्रतिभागनिमित्त उत्पन्न होता है। उस प्रतिभागनिमित्त में मन लगाये रहने से अर्पणा प्राप्त होती है। अर्पणा में स्थित होकर, विपश्यना को बढ़ाते हुए अर्हत्त्व का साक्षात्कार करता है। इसलिये कहा गया है-एकादसविधेन निमित्तग्गाहो उपनिबन्धनत्थो (ग्यारह प्रकार के निमित्त का ग्रहण चित्त को बाँधे रखने के लिये है)। २७. गतागतमग्गपच्चवेक्षणा वीथिसम्पटिपादनत्था [गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षणा वीथि (=मार्ग, पथ) के सम्यक् प्रतिपादन के लिये]-जिस मार्ग से जाया जा चुका है और जिस मार्ग से आया गया है, उसका प्रत्यवेक्षण कर्मस्थान की वीथि के सम्यक् प्रतिपादन के लिये है-यह अर्थ है। कर्मस्थान ग्रहण कर लौटते हुए इस भिक्षु से यदि कोई बीच रास्ते में "भन्ते, आज कौन-सी तिथि है?'-इस प्रकार दिन पूछता है, प्रश्न पूछता है या अभिवादन करता है, "तो मैं कर्मस्थान ग्रहण कर चुका हूँ"ऐसा सोचकर चुपचाप चले नहीं जाना चाहिये, अपितु दिन बताना चाहिये, प्रश्न का उत्तर देना चाहिये । यदि न जानता हो, तो "नहीं जानता हूँ-" ऐसा कहना चाहिये । यद्यपि उसके द्वारा ऐसा किये जाने पर कुछ ही समय पूर्व प्राप्त उद्ग्रहनिमित्त नष्ट हो जाता है; किन्तु भले ही वह नष्ट हो जाय, दिन पूछने पर बतलाना चाहिये, अभिवादन भी करना चाहिये। आगन्तुक भिक्षु को आते हुए देखकर अपनी ओर से आगन्तुक का अभिवादन तो करना चाहिये ही! अन्य भी चैत्य के आँगन विषयक कर्तव्य, बोधि वृक्ष के आँगन विषयक कर्त्तव्य, उपोसथगृह, भोजनालय, अग्निशालाविषयक कर्तव्य, आचार्य, उपाध्याय आगन्तुक, यात्रा के लिये प्रस्थान करने वाले के प्रति कर्तव्य आदि खन्धक (महावग्ग) में बतलाये सभी कर्तव्यों को पूर्ण करना चाहिये। उन्हें पूर्ण करते समय भी, कुछ ही समय पूर्व प्राप्त किया गया उसका निमित्त नष्ट हो जाता है। "फिर से जाकर निमित्त ग्रहण करूँगा"-इस प्रकार जाने की इच्छा रहने पर भी, अमनुष्यों या
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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