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६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस
२५५ अनोकासत्ता न सक्का पञपेतुं । तं दिसं अनपलोकेन्तेनापि ओकासानुरूपे ठाने चङ्कमितब्बं चेव निसीदितब्बं च। चित्तं पन तंदिसाभिमुखं येव कातब्बं ।
२५. इदानि समन्ता निमित्तुपलक्खणा किमत्थिया ति आदिपञ्हानं असम्मोहत्था ति आदि विस्सजने अयं अधिप्पायो-यस्स हि अवेलायं उद्धमातकनिमित्तट्ठानं गन्त्वा समन्ता निमित्तुपलक्खणं कत्वा निमित्तग्गहणत्थं चक्टुं उम्मीलेत्वा ओलोकेन्तस्सेव तं मतसरीरं उद्यहित्वा ठितं विय अज्झोत्थरमानं विय अनुबन्धमानं विय च हुत्वा उपट्टाति, सो तं बीभच्छं भेरवारम्मणं दिस्वा विक्खित्तचित्तो उम्मत्तको विय होति, भयं छम्भितत्तं लोमहंसं पापुणाति। पाळियं हि विभत्तअट्ठतिंसारम्मणेसु अझं एवरूपं भेरवारम्मणं नाम नत्थि। इमस्मि हि कम्मट्ठाने झानविब्भन्तको नाम होति । कस्मा? अतिभेरवत्ता कम्मट्ठानस्स।
तस्मा तेन योगिना सन्थम्भित्वा सतिं सूपट्टितं कत्वा मतसरीरं उद्यहित्वा अनुबन्धकं नाम नत्थि । सचे हि सो "एतस्स समीपे ठितो पासाणो वा लता वा आगच्छेय्य, सरीरं पि आगच्छेय्य, यथा पन सो पासाणो वा लता वा नागच्छति, एवं सरीरं पि नागच्छति । अयं पन तुम्हं उपट्टानाकारो सञजो सासम्भवो, कम्मट्ठानं ते अज उपट्टितं, मा भायि, भिक्खू" ति तासं विनोदेत्वा हास उप्पादेत्वा तस्मि निमित्ते चित्तं सञ्चरापेतब्बं । एवं विसेसं अधिगच्छति। इदमेतं सन्धाय वुत्तं-"समन्ता निमित्तुपलक्खणा असम्मोहत्था" ति।
२६. एकादसविधेन पन निमित्तग्गाहं सम्पादेन्तो कम्मट्ठानं उपनिबन्धति । तस्स हि चक्खूनि उम्मीलेत्वा ओलोकनपच्चया उग्गहनिमित्तं उप्पजति, तस्मि मानसं चारेन्तस्स ओर अभिमुख भूभाग पर टहलना सम्भव न हो, खाली जगह न मिलने से आसन बिछाना भी सम्भव न हो, तो उस दिशा की ओर न देखते हुए भी, टहलना-बैठना तो वहीं चाहिये जहाँ स्थान मिले, किन्तु चित्त को उसी दिशा की ओर, जहाँ वह अशुभनिमित्त है, अभिमुख किये रहना चाहिये।
२५. अब समन्ता निमित्तुपलक्खणं किमत्थिया (चारों ओर से निमित्त को ध्यान से देखने का क्या प्रयोजन है?) आदि प्रश्नों तथा असम्मोहत्था (असम्मोह के लिये) आदि उत्तरों का तात्पर्य यह है-कुसमय में उद्धमातक निमित्त के स्थान में जाकर चारों ओर से निमित्त को ध्यानपूर्वक देखकर निमित्त का ग्रहण करने के लिये आँखें खोल कर देखने वाले को जब वह मृत शरीर उठकर खड़ा होता हुआ, भूमि छोड़कर ऊपर उठता हुआ, पीछा करता हुआ जान पड़ता है; तब वह भिक्षु उस बीभत्स, भयानक आलम्बन को देखकर विक्षिप्तचित्त, पागल के समान हो जाता है। भय, जड़ता या रोमहर्षण (रोयें खड़े हो जाना) हो जाते हैं। पालि में कथित अड़तीस आलम्बनों में कोई अन्य आलम्बन इस जैसा भयानक नहीं है। इसी कर्मस्थान में किसी-किसी योगी का ध्यान टट जाता है। क्यों? कर्मस्थान की अत्यधिक भयानकता के कारण।
- इसलिये उस योगी को दृढ़ता के साथ स्मृति बनाये रखकर,"मृत शरीर उठकर पीछा नहीं कर सकता। यदि उसके समीपवर्ती पत्थर या लता आते तो वह शरीर भी आता; किन्तु पत्थर या लता नहीं आते, अतः शरीर भी नहीं आ रहा है। यह तो मुझे प्रतीतमात्र हो रहा है, पूर्ववर्ती संज्ञा (=प्रत्यक्ष ज्ञान) से उत्पन्न है। आज मेरा कर्मस्थान उपस्थित हुआ है। भिक्षु, डर मत"-इस प्रकार उसे भयपूर्वक न लेते हुए निमित्त में चित्त को लगाये रखना चाहिये। इस प्रकार भिक्षु विशेषता प्राप्त करता है। इसी को लक्ष्य करके कहा गया है- समन्ता निमित्तुपलक्खणा असम्मोहत्था (चारों ओर से निमित्तो को देखना असम्मोह के लिये है)।
२६ ग्यारह प्रकार से निमित्त का ग्रहणकर्ता भिक्षु कर्मस्थान में लगता है। जब वह आँखें