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विसुद्धिमग्ग
निमित्तं गण्हितब्बं । “उद्धमातकपटिक्कूलं उद्धमातकपटिक्कूलं" ति सतक्खत्तुं सहस्सक्खत्तुं उम्मीत्वा ओलोकेतब्बं, निमीलेत्वा आवज्जितब्बं ।
एवं पुनप्पुनं करोन्तस्स उग्गहनिमित्तं सुग्गहितं होति । कदा सुग्गहितं होति ? यदा उम्मीलेत्वा आलोकेन्तस्स निमीलेत्वा आवज्जेन्तस्स च एकसदिसं हुत्वा आपाथं आगच्छति, तदा सुग्गहितं नाम होति ।
२४. सो तं निमित्तं एवं सुग्गहितं कत्वा सूपधारितं उपधारेत्वा सुववत्थितं ववत्थपेत्वा सचे तत्थेव भावनापरियोसानं पत्तुं न सक्कोति, अथानेन आगमनकाले वुत्तनयेनेव एककेन अदुतियेन तदेव कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तेन सूपट्ठितं सतिं कत्वा अन्तोगतेहि इन्द्रियेहि अबहिगतेन मानसेन अत्तनो सेनासनमेव गन्तब्बं ।
सुसाना निक्खमन्तेनेव च आगमनमग्गो ववत्थपेतब्बो - 'येन मग्गेन निक्खन्तोस्मि, अयं मग्गो पाचीनदिसाभिमुखो वा गच्छति, पच्छिम... उत्तर... दक्खिणदिसाभिमुखो वा गच्छति, विदिसाभिमुखो वा गच्छति, इमस्मि पन ठाने वामतो गच्छति, इमस्मि दक्खिणतो, इमस्मि चस्स ठाने पासाणो, इमस्मि वम्मिको, इमस्मि रुक्खो, इमस्मि गच्छो, इमस्मि लता' ति । एवं आगमनमग्गं ववत्थपेत्वा आगतेन चङ्कमन्तेना पि तब्भागियो व चङ्कमो अधिट्ठातब्बो । असुभनिमित्तदिसाभिमुखे भूमिप्पदेसे चङ्कमितब्बं ति अत्यो । निसीदन्तेन आसनं पितभागियमेव पञ्ञपेतब्बं । सचे पन तस्सं दिसायं सोब्भो वा पपातो वा रुक्खो वावति वा कललं वा होति, न सक्का तंदिसाभिमुखे भूमिप्पदेसे चङ्कमितुं, आसन्नं पि दूर, न बहुत पास खड़े होकर या बैठे हुए, आँखों को खोले रखकर निमित्त को ग्रहण करना चाहिये । "उद्धमातक प्रतिकूल (= कुत्सित, वितृष्णाजनक ), उद्धमातक प्रतिकूल" - इस प्रकार सौ बार या हजार बार आँखें खोलकर देखना चाहिये और आँखें बन्द कर मनन करना चाहिये ।
इस प्रकार बार बार करने पर उद्ग्रह - निमित्त भलीभाँति गृहीत हो जाता है। कब भलीभाँति गृहीत होता है? जब आँखें खोलकर देखते समय और बन्द कर मनन करते समय निमित्त एक जैसा जान पड़ता हो, तब कहा जाता है कि वह उद्ग्रहनिमित्त भलीभाँति पकड़ में आ गया।
२४. उस निमित्त का भलीभाँति ग्रहण करने, भलीभाँति धारण करने, भलीभाँति विचार करने पर, यदि उसी स्थान पर भावना की पूर्णता प्राप्त न हो सके तो उसे आगमन के बारे में बतलायी गयी विधि के अनुसार ही अकेले, विना किसी को साथ लिये, उसी कर्मस्थान के विषय में चिन्तन करते हुए स्मृति को बनाये रखकर, अन्तर्मुखी इन्द्रियों के कारण अन्तर्मुख हुए मन के साथ अपने शयनासन में ही जाना चाहिये।
श्मशान से निकलते समय लौटने के मार्ग का विचार (= निश्चय) करना चाहिये - " जिस मार्ग से निकलता हूँ, वह मार्ग पूर्व दिशा की ओर जाता है या पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा की ओर जाता है या उपदिशा की ओर जाता है, इस स्थान से बायीं या दायीं ओर जाता है; यहाँ पत्थर, यहाँ दीमक की बाँबी, यहाँ वृक्ष, यहाँ झाड़ी, यहाँ लता है।" इस प्रकार लौटने के मार्ग का विचार कर, वापस आकर चंक्रमण करते समय भी उसी ओर मुख किये हुए ही चंक्रमण करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि शुभाभित की दिशा की ओर अभिमुख भूभाग पर चंक्रमण करना चाहिये। बैठते समय आसन भी उसी तरफ मुख करके बिछाना चाहिये ।
किन्तु यदि उस दिशा में पानी भरा गड्ढा, झरना, चहारदीवारी या कीचड़ हो, उस दिशा की