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६. असुभकम्मट्टाननिद्देस
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विवरतोति । विवरं नाम हत्थन्तरं पादन्तरं उदरन्तरं कण्णन्तरं ति एवं विवरतो ववत्थपेतब्बं । अक्खीनं पि निम्मीलितभावो वा उम्मीलितभावो वा, मुखस्स च पिहितभावो वा विवटभावो वा ववत्थपेतब्बो ।
निन्नतोति । यं सरीरे निन्नट्ठानं अक्खिकूपो वा अन्तोमुखं वा गलवाटको वा, तं ववत्थपेतब्बं । अथ वा ' अहं निन्ने ठितो, सरीरं उन्नते' ति ववत्थपेतब्बं ।
अथ वा
थलतोति । यं सरीरे उन्नतट्ठानं जण्णुकं वा उरो वा नलाटं वा, तं ववत्थपेतब्बं । 'अहं थले ठितो, सरीरं निन्ने' ति ववत्थपेतब्बं ।
समन्ततोति । सब्बं सरीरं समन्ततो ववत्थपेतब्बं । सकलसरीरे जाणं यं ठानं विभूतं हुत्वा उपद्वाति, तत्थ "उद्धमातकं उद्धमातकं" ति चित्तं ठपेतब्बं । सचे एवं पि न उपट्ठाति उदरपरियोसानं अतिरेकं उद्धुमातकं होति, तत्थ "उद्धमातकं उद्धमातकं" ति चित्तं ठपेतब्बं । विनिच्छियकथा
२३. इदानि सो तं निमित्तं सुग्गहितं करोती ति आदीसु अयं विनिच्छयकथातेन योगिना तस्मि सरीरे यथावुत्तनिमित्तग्गाहवसेन सुट्ठ निमित्तं गण्हितब्बं, सतिं सूपतिं त्वा आवजितब्बं, एवं पुनप्पुनं करोन्तेन साधुकं उपाधारेतब्बं चेव ववत्थपेतब्ब च । सरीरतो नातिदूरे नाच्चासन्ने पदेसे ठितेन वा निसिन्नेन वा चक्खुं उम्मीलेत्वा ओलोकेत्वा
विवरतो (विवर से) - 'विवर' कहते हैं हाथ के अन्तर (दाहिने हाथ और दाहिने पार्श्व के बीच, बायें हाथ और बायें पार्श्व के बीच का खाली स्थान) पैर के अन्तर (= दोनों पैरों के बीच का खाली स्थान), पेट के अन्तर (=कुक्षि के मध्य में स्थित नाभि-विवर या पेट के भीतर का विवर), कान के अन्तर (कान के भीतर का खाली स्थान) को । इस प्रकार विवर के अनुसार विचार करना चाहिये। आँख और मुख के भी बन्द होने या खुले होने का विचार करना चाहिये । (२)
निन्नतो (नीचे से)- जो शरीर में खोखला स्थान है, जैसे आँख का गड्डा, मुख के भीतर का भाग या गले का निचला भाग (= गलवाटक) उसका विचार करना चाहिये। अथवा, 'मैं निचाई पर स्थित हूँ, मृत शरीर ऊँचाई पर इस प्रकार विचार करना चाहिये। (३)
थलतो (ऊँचे से)- शरीर में जो उन्नत स्थान हैं, जैसे घुटना, छाती या ललाट-उस पर विचार करना चाहिये । अथवा 'मैं ऊँचाई पर स्थित हूँ, शरीर निचाई पर इस प्रकार विचार करना चाहिये । (४)
समन्ततो (चारों ओर से ) - समस्त शरीर का चारों ओर से विचार करना चाहिये। समस्त शरीर में से जिस स्थान का स्पष्ट रूप से ज्ञान हो रहा हो, उसी में "उद्धमातक, उद्धमातक " - इस प्रकार चित्त को स्थिर करना चाहिये। यदि ऐसे भी (= ऐसा करने पर भी) (अशुभनिमित्त) उपस्थित न होता हो, और यदि शव के पेट में शोध अधिक हो, तो उसी में "उद्धमातक, उद्धमातक" इस प्रकार चित्त को स्थिर करना चाहिये । (५)
उक्त अट्ठकथा की व्याख्या (= विनिश्चयकथा)
२३. अब, सो तं निमित्तं सुग्गहितं करोति (वह उस निमित्त को भलीभाँति ग्रहण करता है) आदि वाक्यावलि की यह व्याख्या है
उस योगी को उस शरीर में यथोक्त निमित्त ग्रहण की विधि के अनुसार भली-भाँति निमित्त का ग्रहण करना चाहिये। स्मृति को बनाये रखकर बार-बार विचार करना चाहिये। इस प्रकार बारबार विचार करते हुए, भली भाँति धारण करना चाहिये, चिन्तन करना चाहिये। मृत शरीर से न बहुत