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विसुद्धिमग्ग अयं पादपरिच्छेदो, अयं सीसपरिच्छेदो, अयं मज्झिमकायपरिच्छेदो' ति ववत्थपेतब्बं । यत्तकं वा पन ठानं गण्हाति, तत्तकमेव इदं ईदिसं उद्धमातकं ति परिच्छिन्दितब्बं ।
पुरिसस्स पन इत्थिसरीरं, इत्थिया वा पुरिससरीरं न वट्टति। विसभागे सरीरे आरम्मणं न उपट्ठाति, विप्फन्दनस्सेव पच्चयो होति। "उग्घाटिता पि हि इत्थी पुरिसस्स चित्तं परियादाय तिद्रुती" ति मज्झिमट्ठकथायं वुत्तं। तस्मा सभागसरीरे येव एवं छब्बिधेन निमित्तं गण्हितब्बं ।
२१. यो पन पुरिमबुद्धानं सन्तिके आसेवितकम्मट्ठानो परिहतधुतङ्गो परिमद्दितमहाभूतो परिग्गहितसङ्खारो ववत्थापितनामरूपो उग्घाटितसत्तसो कतसमणधम्मो वासितवासनो भावितभावनो सबीजो आणुत्तरो अप्पकिलेसो कुलपुत्तो, तस्स ओलोकितोलोकितट्ठाने येव पटिभागनिमित्तं उपाति। नो चे एवं उपट्ठाति, अथेवं छब्बिधेन निमित्तं गण्हतो उपट्टाति।
२२. यस्स पन एवं पि न उपट्ठाति, तेन १. सन्धितो, २. विवरतो, ३. निन्नतो, ४. थलतो, ५. समन्ततो ति पुन पि पञ्चविधेन निमित्तं गहेतब्बं ।
__ तत्थ सन्धितो ति। असीतिसतसन्धितो । उद्धमातके पन कथं असीतिसतसन्धियो ववत्थपेस्सति? तस्मानेन तयो दक्खिणहत्थसन्धी, तयो वामहत्थसन्धी, तयो वामपादसन्धी, एको गीवसन्धि, एको कटिसन्धी ति एवं चुद्दसमहासन्धिवसेन सन्धितो ववत्थपेतब्बं । है"-इस प्रकार विचार करना चाहिये। अथवा, "यह इसके हाथ की सीमा है, यह इसके पैर की सीमा, यह सिर की सीमा, यह शरीर के मध्य भाग की सीमा"-इस प्रकार करना चाहिये । अथवा उद्धमातक के जितने स्थान (=भाग) का विचार के लिये मन से ग्रहण करता है, उतने ही के बारे में "यह इस प्रकार का उद्धमातक है"-इस प्रकार सीमा का निश्चय करना चाहिये । (६)
पुरुष के लिये स्त्री का शरीर या स्त्री के लिये पुरुष का शरीर ध्यान के आलम्बन के रूप में विहित नहीं है। विपरीत शरीर में अशुभ आलम्बन नहीं जान पड़ता, अपितु वह अनुचित उत्तेजना (=विस्पन्दन क्लेश-स्पन्दन) का ही कारण होता है। मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में कहा गया है"खुले हुए शरीर वाली (=निर्वस्त्र शरीर वाली) स्त्री (चाहे भले ही उसका शरीर पूरी तरह से सड़ा हुआ हो) पुरुष के चित्त को वशीभूत कर लेती है।" इसलिये अनुरूप शरीर में ही (=भिक्षु को पुरुषशरीर में एवं भिक्षुणी को स्त्री के शरीर में ही) ऐसे छह प्रकार से निमित्त ग्रहण करना चाहिये।
२१.जिसने पूर्व बुद्धों के समीप कर्मस्थान का पालन, धुताङ्ग-धारण, महाभूतों का परिमर्दन (=सूक्ष्मतया मनन-चिन्तन द्वारा विश्लेषण), संस्कारों का ग्रहण, नामरूप का विचार, सत्त्व-संज्ञा का नाश या श्रमण धर्म का पालन किया है, जो कुशल वासना से वासित और कुशल भावना से भावित है, बुद्धत्व के बीज से युक्त, उच्चस्तरीय ज्ञान से युक्त एवं अल्पक्लेश वाला है, ऐसे कुलपुत्र को उस अशुभनिमित्त को देखते ही, उसी स्थान पर प्रतिभागनिमित्त उत्पन्न हो जाता है। यदि इस प्रकार उत्पन्न न हो, तो ऐसे उक्त छह प्रकार से निमित्त ग्रहण करते समय उत्पन्न हो जाता है।
२२. जिसे इस प्रकार भी निमित्त उत्पन्न न हो, उसे १.सन्धि, २. छिद्र (=विवर). ३. नीचे, ४. ऊपर, ५. चारों ओर से इस तरह, पूर्वोक्त छह के अतिरिक्त, पुनः इन पाँच प्रकारों से भी निमित्त का ग्रहण करना चाहिये
सन्धितो (सन्धि से)-एक सौ अस्सी सन्धियों से। किन्तु उद्धमातक में किस प्रकार एक सौ अस्सी सन्धियों का विचार कर पायगा? इसलिये उस भिक्षु को तीन दाहिने हाथ की सन्धियाँ, तीन बायें हाथ की सन्धियाँ, तीन दाहिने पैर की सन्धियाँ, तीन बायें पैर की सन्धियाँ, एक ग्रीवा की सन्धि, एक कमर की सन्धि-इस प्रकार चौदह प्रमुख सन्धियों के अनुसार सन्धि का विचार करना चाहिये।
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