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________________ २५८ विसुद्धिमग्ग मे इदं कम्मट्ठानं लद्धं, दुग्गतस्स महग्घमणिरतनसदिसं। चतुधातुकम्मट्ठानिको हि अत्तनो चत्तारो महाभूते परिग्गण्हाति, आनापानकम्मट्ठानिको अत्तनो नासिकावातं परिग्गण्हाति, कसिणकम्मट्ठानिको कसिणं कत्वा यथासुखं भावेति, एवं इतरानि कम्मट्ठानानि सुलभानि। इदं पन एकमेव वा द्वे वा दिवसे तिति, ततोपरं विनीलकादिभावं पापुणाती ति नत्थि इतो दुलभतरं" ति तस्मि रतनसञिना हुत्वा चित्तीकारं उपट्ठपेत्वा सम्पियायमानो तं निमित्तं रक्खितब्बं । रत्तिट्ठाने च दिवाठाने च "उद्धमातकपटिकूलं उद्धमातकपटिक्कूलं" ति तत्थ पुनप्पुनं चित्तं उपनिबन्धितब्बं । पुनप्पुनं तं निमित्तं आवजितब्बं, मनसिकातब्बं, तक्काहतं विकचाहतं कातब्बं। २९. तस्सेवं करोतो पटिभागनिमित्तं उप्पजति। तत्रिदं निमित्तद्वयस्स नानाकरणं। उग्गहनिमित्तं विरूपं बीभच्छं भेरवदस्सनं हुत्वा उपट्ठाति। पटिभागनिमित्तं पन यावदत्थं भुञ्जित्वा निपन्नो थूलङ्गपच्चङ्गपुरिसो विय।। तस्स पटिभागनिमित्तपटिलाभसमकालमेव बहिद्धा कामानं अमनसिकारा विक्खम्भनवसेन कामच्छन्दो पहीयति। अनुनयप्पहानेनेव चस्स लोहितप्पहानेन पुब्बो विय ब्यापादो पि पहीयति। तथा आरद्धविरियताय थीनमिद्धं, अविप्पटिसारकरसन्तधम्मानुयोगवसेन उद्भुच्चकुक्कुच्चं, अधिगतविसेसस्स पच्चक्खताय पटिपत्तिदेसके सत्थरि पटिपत्तियं पटिपत्तिफले च विचिकिच्छा पहीयती ति पञ्च नीवरणानि पहीयन्ति। ३०. तस्मिञ्जव च निमित्ते चेतसो अभिनिरोपनलक्खणो वितको, निमित्तानुमज्जनमणिरत्न के समान; क्योंकि चार धातुओं को कर्मस्थान बनाने वाला योगी तो स्वयं में चार महाभूतों का स्पष्ट अनुभव (=परिग्रह) करता है, कसिण को कर्मस्थान के रूप में ग्रहण करने वाला स्वयं की नासिका से आने वाली वायु का स्पष्ट अनुभव करता है, कसिण को कर्मस्थान बनाने वाला कसिण (मण्डल) बनाकर, सुविधानुसार भावना करता है; इसी प्रकार अन्य कर्मस्थान भी सुलभ हैं। किन्तु यह उद्धमातक तो एक-दो दिन ही उद्धमातक रहता है, उसके बाद तो विनीलक आदि हो जाता है, अतः इससे अधिक दुर्लभ कर्मस्थान कोई नहीं है"-यों विचार कर उसे रत्न समझते हुए आदर और प्रेम के साथ उस निमित्त की रक्षा करनी चाहिये। भले ही रात्रिकालीन स्थान हो या दिवसकालीन स्थान, "उदमातक प्रतिकूल, उद्धमातक प्रतिकूल" इस प्रकार उससे चित्त को बारम्बार बाँधना चाहिये। बार बार उस निमित्त का विचार, चिन्तन, तर्क-वितर्क करना चाहिये। २९. जब वह ऐसा करता है, तब प्रतिभागनिमित्त उत्पन्न होता है। दोनों निमित्तों में यह भेद है-उदग्रहनिमित्त नीरूप, बीभत्स, भयानक जान पड़ता है। और प्रतिभागनिमित्त इच्छा भर खाकर सोये हुए स्थूलकाय पुरुष के समान जान पड़ता है। वह जैसे ही प्रतिभागनिमित्त की प्राप्ति करता है; बाह्य कामनाओं के प्रति ध्यान न देने के कारण दमित हो जाने से, कामच्छन्द का प्रहाण हो जाता है। अनुनय का प्रहाण हो जाने से, उसके व्यापाद का भी प्रहाण हो जाता है, रक्त के न रह जाने पर मवाद (गन्दा खून) के समाप्त हो जाने के समान। वैसे ही वीर्य का आरम्भ करने से, स्त्यान-मृद्ध एवं पश्चात्तापरहित होने से (=अविप्रतिसार के) कारणभूत (अशुभ कर्मस्थान रूप) शान्त धर्म के सेवन (=अनुयोग) के फलस्वरूप औद्धत्य-कौकृत्य का; उपलब्ध विशिष्टता की अनुभूति के कारण मार्ग के उपदेशक शास्ता, मार्ग एवं मार्ग-फल में सन्देह (=विचिकित्सा) का प्रहाण हो जाता है। यों पाँचो नीवरण प्रहीण हो जाते हैं। ३०. उसी निमित्त में चित्त की प्रवृत्ति रूप लक्षण वाला वितर्क, निमित्त का मार्जन कृत्य करने
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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