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विसुद्धिमग्ग वुत्तनयेन संहारिमं वा भित्तियं येव वा कसिणमण्डलं कत्वा विसभागवण्णेन परिच्छिन्दितब्बं । ततो पथवीकसिणे वुत्तनयेन "नीलं, नीलं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। इधापि उग्गहनिमित्ते कसिणदोसो पायति, केसरदण्डकपत्तन्तरिकादीनि उपट्ठहन्ति। पटिभागनिमित्तं कसिणमण्डलतो मुञ्चित्वा आकासे मणितालवण्टसदिसं उपट्ठाति । तेसं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं ति॥
नीलकसिणं॥ पीतकसिणकथा १०. पीतकसिणे पि एसेव नयो । वुत्तं हेतं-"पीतकसिणं उग्गण्हन्तो पीतकस्मि निमित्तं गण्हाति पुप्फस्मि वा वत्थस्मि वा वण्णधातुया वा" ति । तस्मा इधा पि कताधिकारस्स पुजवतो तथारूपं मालागच्छं वा पुप्फसन्थरं वा पीतवत्थधातूनं वा अञ्जतरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति चित्तगुत्तत्थेरस्स विय! तस्स किरायस्मतो चित्तलपब्बते पतङ्गपुप्फेहि कतं आसनपूजं पस्सतो सह दस्सनेनेव आसनप्पमाणं निमित्तं उदपादि। इतरेन कणिकारपुष्पादिना वा पीतवत्थेन वा धातुना वा नीलकसिणे वुत्तनयेनेव कसिणं कत्वा "पीतकं, पीतकं" ति मनसिकारो पवत्तेतब्बो। सेसं तादिसमेवा ति॥
पीतकसिणं॥ लोहितकसिणकथा ११. लोहितकसिणे पि एसेव नयो। वुत्तं हेतं-"लोहितकसिणं उग्गण्हतो के मुख पर बाँधना चाहिये, जिससे कि वह नगाड़े के तल के समान लगे। या पृथ्वीकसिण के प्रसङ्ग में कहे अनुसार ही, काँसे के समान नीली, पलास (=पत्ते) के समान नीली अर्थात् नीलिमा लिये हुए हरी या अअन के समान नीली किसी धात से ले जाने योग्य या किसी दीवार पर ही कसिणमण्डल बनाकर, उसकी पृष्ठभूमि को विषम वर्ण से बना देना चाहिये। (यह पालि शब्द 'नील', जो संस्कृत से ग्रहण किया गया है, नीले हरे एवं कभी-कभी काले रंग का भी सूचक होता है।) तब पृथ्वीकसिण के प्रसङ्ग में बतलाये गये विधि-प्रकार से ही, "नीला-नीला" इस प्रकार मन में लाना चाहिये । यहाँ भी उद्ग्रहनिमित्त में कसिण का दोष दिखलायी देता है; केसर, डण्ठल एवं पंखुड़ियों के बीच में खाली स्थान स्पष्ट प्रतीत होते हैं। प्रतिभागनिमित्त कसिणमण्डल से स्वतन्त्र रूप में, आकाश में इन्द्रनील मणि के पंखे के समान जान पड़ता है। शेष उक्त प्रकार से ही जानना चाहिये।।
नीलकसिण का वर्णन समाप्त ।। पीतकसिण
१०.पीत (पीले) कसिण में भी यही विधि है। क्योंकि कहा गया है-"पीले कसिण का ग्रहण करने वाला पीले फूल, वस्त्र या (पीले) रंग वाली धातु में निमित्त ग्रहण करता है। इसलिये यहाँ भी, पूर्वजन्म में अभ्यास कर चुके पुण्यवान् को फूलों की झाड़ी , बिछाए हुए फूलो, पीले वस्त्र या धातु में से किसी एक को देखने पर निमित्त उत्पन्न होता है, चित्रगुप्त स्थविर के समान । उन आयुष्मान् को चित्तल पर्वत पर पतङ्ग-पुष्पों से की गयी वेदी-पूजा को देखते ही, आसन के प्रमाण का निमित्त उत्पन्न हुआ। दूसरों को कर्णिकार के फूल आदि से, पीले वस्त्र या धातु से नीलकसिण में बतलायी गयी विधि के अनुसार ही कसिण बनाकर "पीला, पीला"-इस प्रकार मन में लाना चाहिये। शेष वैसा ही है।
पीतकसिण का वर्णन समाप्त ।।