SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. सेसकसिणनिद्देस २३५ वेणुं वा रुक्खं वा चतुरङ्गुलप्पमाणं घनकेसस्स पुरिसस्स सीसं वा वातेन पहरियमानं दिस्वा " अयं वातो एतस्मि ठाने पहरती" ति सतिं ठपेत्वा, यं वा पनस्स वातपानन्तरिकाय वा भित्तिछिद्देन वा पविसित्वा वातो कायप्पदेसं पहरति, तत्थ सतिं ठपेत्वा वात- मालुतअनिलादीसु वायुनामेसु पाकटनामवसेनेव "वातो, वातो" ति भावेतब्बं । इध उग्गहनिमित्तवडूनतो ओतारितमत्तस्स पायासस्स उसुमवट्टिसदिसं चलं हुत्वा उपट्ठाति । पटिभागनिमित्तं सन्निसिन्नं होति निच्चलं । सेसं वृत्तनयेनेव वेदितब्बं ति ॥ वायोकसिणं ॥ नीलकसिणकथा ९. तदनन्तरं पन " नीलकसिणं उग्गहन्तो नीलकस्मि निमित्तं गण्हाति पुप्फस्मि वा वत्थस्मि वा वण्णधातुया वा" ति वचनतो कताधिकारस्स पुञ्ञवतो ताव तथारूपं मालागच्छं वा पूजाठानेसु पुप्फसन्थरं वा नीलवत्थमणीनं वा अञ्ञतरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति । इतरेन नीलुप्पलगिरिकण्णिकादीनि पुप्फानि गहेत्वा यथा केसलं वा वण्टं वा न पञ्ञायति, एवं चङ्गोटकं वा करण्डपटलं वा पत्तेहि येव समतित्तिकं पूरेत्वा सन्थरितब्बं । नीलवण्णेन वा वत्थेन भण्डिकं बन्धित्वा पूरेतब्बं । मुखवट्टियं वा अस्स भेरितलमिव बन्धिब्बं । कंसनील - पलासनील-अञ्जननीलानं वा अञ्ञतरेन धातुना पथवीकसिणे वायुकसिण ८. वायुकसिण की भावना के अभिलाषी साधक को वायु में निमित्त ग्रहण करना चाहिये । एवं वह देखकर या स्पर्श कर किया जा सकता है। अट्ठकथाओं में कहा भी गया है-"वायुकसिण का अभ्यास करते हुए वायु में निमित्त का ग्रहण करता है, हिलते-डुलते ईख के पौधे के अग्र भाग को ध्यान से देखता है (उपलक्षित करता है), या हिलते-डुलते बाँस, वृक्ष या केश के अग्रभाग को ध्यान से देखता है या काया पर वायु के स्पर्श पर ध्यान देता है ।" अतः एक समान अग्रभाग वाले सघन पत्तों से युक्त ईख, बाँस, वृक्ष या पुरुष के सिर पर चार अङ्गुल की लम्बाई वाले सघन केशों को हवा से प्रताड़ित होते देखकर "यह हवा उस स्थान पर प्रहार कर रही है" - इस प्रकार स्मृति बनाये हुए अथवा जो वायु खिड़की या झरोखे से प्रवेश कर काया पर प्रहार करती है, उसमें स्मृति बनाये हुए, 'वायु', 'मारुत', 'अनिल' आदि वायु के नामों में से स्पष्ट नाम होने के कारण "वायु, वायु " - इस प्रकार की भावना करनी चाहिये। यहाँ उद्ग्रहनिमित्त चूल्हे से अभी-अभी उतारी हुई खीर की गोल-गोल घूमती हुई भाप के समान जान पड़ता है। प्रतिभागनिमित्त स्थिर, निश्चल होता है। शेष पूर्वोक्त प्रकार से ही जानना चाहिये ।। वायुकसिण का वर्णन समाप्त ।। नीलकसिण ९. तत्पश्चात्, ”नील कंसिण का ग्रहण करने वाला नीले फूल, वस्त्र या नीले रंग की धातु में निमित्त ग्रहण करता है" - इस वचन के अनुसार, पूर्वजन्म में अभ्यास कर चुके पुण्यवान् को वैसे नीले फूलों की झाड़ी, पूजा के स्थान पर बिछाये गये फूलों या नीले वस्त्र या नीलमणि में से किसी एक को देखकर निमित्त उत्पन्न होता है। दूसरों को नीलोत्पल (= नीलकमल) गिरिकर्णिक आदि फूलों को लेकर । जैसे फूल के केसर या डंठल न दिखायी दें, उस प्रकार डलिया या टोकरी को फूलों से या फूलों की पंखुड़ियों से ही एक समान भरकर फैला देना चाहिये। या नीले वस्त्र के फूलों की आकृति वाले गुच्छे बनाकर टोकरी या डलिया को भरना चाहिये या नीले वस्त्र को डलिया या टोकरी
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy