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________________ २३४ विसुद्धिमग्ग रासिं कत्वा आलिम्पेत्वा कटसारके वा चम्मे वा पटे वा विदत्थिचतुरङ्गलप्पमाणं छिदं कातब्बं । तं पुरतो ठपेत्वा वुत्तनयेनेव निसीदित्वा हेट्ठा तिणकटुं वा उपरि धूमसिखं वा अमनसिकरित्वा वेमज्झे घनजालाय निमित्तं गण्हितब्बं । नीलं ति वा, पीतं ति वा ति आदिवसेन वण्णो न पच्चवेक्खितब्बो । उण्हत्तवसेन लक्खणं न मनसि कातब्बं । निस्सयसवण्णमेव कत्वा उस्सदवसेन पण्णत्तिधम्मे चित्तं ठपेत्वा पावको, कण्हवत्तनी, जातवेदो, हुतासनो ति आदीसु अग्गिनामेसु पाकटनामवसेनेव "तेजो, तेजो" ति भावेतब्बं । ७. तस्सेवं भावयतो अनुक्कमेन वुत्तनयेनेव निमित्तद्वयं उप्पज्जति । तत्थ उग्गहनिमित्तं जालं छिज्जित्वा छिज्जित्वा पतनसदिसं हुत्वा उपट्ठाति । अकते गण्हन्तस्स पन कसिणदोसो पायति, अलातखण्डं वा अङ्गारपिण्डो वा छारिका वा धूमो वा उपट्ठाति । पटिभागनिमित्तं निच्चलं आकासे ठपितरत्तकम्बलखण्डं विय सुवण्णतालवण्टं विय कञ्चनत्थम्भो विय च उपट्ठाति। सो तस्स सह उपट्ठानेनेव उपचारज्झानं, वुत्तनयेनेव चतुक्कपञ्चकज्झानानि पापुणाती ति॥ तेजोकसिणं॥ वायोकसिणकथा ८. वायोकसिणं भावेतुकामेना पि वायुस्मि निमित्तं गण्हितब्बं । तं च खो दिट्ठवसेन वा फुट्ठवसेन वा। वुत्तं हेतं अट्ठकथासु-"वायोकसिणं उग्गण्हन्तो वायुस्मि निमित्तं गण्हाति, उच्छग्गं वा एरितं समेरितं उपलक्खेति, वेळुग्गं वा....पे०.... रुक्खग्गं वा केसग्गं वा एरितं समेरितं उपलक्खेति, कायस्मि वा फुटुं उपलक्खेती" ति। तस्मा समसीसट्टितं धनपत्तं उच्छं वा उसके बनाने की विधि यह है-मोटी-मोटी गीली लकड़ियों को चीरकर, सुखाकर उन्हें खण्डशः टुकड़े-टुकड़े करके कर योग्य वृक्ष के नीचे या मण्डप में जाकर, जैसे बर्तन पकाने के लिये बनाया जाता है, वैसे ढेर (राशि) बनाकर, आग लगाकर, बोरे, चमड़े या कपड़े में एक बालिश्त चार अङ्गुल प्रमाण का एक छेद बनाना चाहिये। उसे अग्नि के सामने लटकाकर पूर्वोक्त प्रकार से नीचे बैठकर तृण काष्ठ या ऊपर के धुंए व लपट की ओर ध्यान न देते हुए मध्यवर्ती सघन ज्वाला में निमित्त ग्रहण करना चाहिये । यह नीला है या पीला है-आदि प्रकार से वर्ण का प्रत्यवेक्षण नहीं करना चाहिये। अथवा, उष्णत्व के रूप में इसका लक्षण मन में नहीं लाना चाहिये। इसके वर्ण को इसके आधार से सम्बन्धित मानते हुए प्रमुखतः प्रज्ञप्ति धर्म में चित्त को स्थिर पर, 'पावक', 'कृष्णवां' 'जातवेद' 'हुताशन' आदि अग्नि के नामों में 'तेज' यह स्पष्ट नाम होने से 'तेज, तेज"-इस प्रकार भावना करनी चाहिये। ७. जब वह इस प्रकार से भावना करता है, तब क्रमशः उक्त प्रकार से ही निमित्त-द्वय उत्पन्न होता है। इनमें उद्ग्रहनिमित्त अग्नि की लपट के लपलपाते हुए नीचे की ओर झुकने के समान उपस्थित होता है। किन्तु अकृत (=मण्डल आदि में जानबूझ कर न जलायी गयी अग्नि में) निमित्त ग्रहण करने वाले को कसिण का दोष जान पड़ता है, जली हुई लकड़ी के कुन्दे (=अलातखण्ड), कोयला, राख या धुंआ जान पड़ते हैं। प्रतिभागनिमित्त निश्चल आकाश में रखे गये लाल कम्बल के टुकड़े के समान स्वर्णनिर्मित पत्र के समान या स्वर्णनिर्मित स्तम्भ के समान जान पड़ता है। वह उस प्रतिभागनिमित्त के उपस्थित होने के साथ ही उपचार ध्यान को और उक्त प्रकार से चतुष्क पञ्चक ध्यानों को प्राप्त कर लेता है।। तेजोकसिण का वर्णन समाप्त ।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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