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________________ ५. सेसकसिणनिद्देस २३३ न लक्खणं मनसि कातब्बं । निस्सयसवण्णमेव कत्वा उस्सदवसेन पण्णत्तिधम्मे चित्तं ठपेत्वा अम्बु, उदकं, वारि, सलिलं ति आदीसु आपोनामेसु पाकटनामवसेनेव "आपो, आपो" ति भावेतब्बं । ___४. तस्सेवं भावयतो अनुक्कमेन वुत्तनयेनेव निमित्तद्वयं उप्पज्जति । इध पन उग्गहनिमित्तं चलमानं विय उपट्ठाति, सचे फेणपुप्फुळकमिस्सं उदकं होति, तादिसमेव उपट्ठाति, कसिणदोसो पायति। पटिभागनिमित्तं पन निप्परिप्फन्दं आकासे ठपितमणितालवण्टं विय मणिमयादासमण्डलं विय च हुत्वा उपट्ठाति । सो तस्स सह उपट्ठानेनेव उपचारज्झानं, वुत्तनयेनेव चतुकपञ्चकज्झानानि च पापुणाती ति। आपोकसिणं॥ तेजोकसिणकथा ५. तेजोकसिणं भावेतुकामेना पि तेजस्मि निमित्तं गण्हितब्बं । तत्थ कताधिकारस्स पुञ्जवतो अकते निमित्तं गण्हन्तस्स दीपसिखाय वा उद्धने वा पत्तपचनट्ठाने वा दवदाहे वा यत्थ कत्थचि अग्गिजालं ओलोकेन्तस्स निमित्तं उप्पज्जति चित्तगुत्तत्थेरस्स विय । तस्स हायस्मतो धमेस्सवनदिवसे उपोसथागारं पविट्ठस्स दीपसिखं ओलोकेन्तस्सेव निमित्तं उप्पज्जि। . ६. इतरेन पन कातब्वं । तत्रिदं करणविधानं-सिनिद्धानि सारदारूनि फालेत्वा सुक्खापेत्वा घटिकं घटिकं कत्वा पटिरूपं रुक्खमूलं वा मण्डपं वा गन्त्वा पत्तपचनाकारेन हुए स्थान में रखकर, सुखपूर्वक बैठकर, न नीलवर्ण का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये, और न लक्षण को ही मन में लाना चाहिये। वर्ण को उसके आधार (=भौतिक धरातल, अर्थात् पात्र के धरातल) से सम्बद्ध समझते हुए, प्रमुखतः प्रज्ञप्तिधर्म (नाम) में चित्त को स्थिर कर जल के विभिन्न नामों-अम्बु, उदक, वारि, सलिल-आदि में सर्वाधिक स्पष्ट होने से 'आपः आपः' ('जल-जल)-इस प्रकार भावना करनी चाहिये। ४. जब वह इस प्रकार भावना करता है, तब क्रमशः उक्त प्रकार से ही (द्र०-विसु०, चतुर्थ परिच्छेद पृ० १७४) निमित्तद्वय उत्पन्न होता है। किन्तु यहाँ उद्ग्रह-निमित्त चलायमान सा उपस्थित होता है, यदि फेन के बुलबुलों से मिश्रित जल हो तो उसी प्रकार का उपस्थित होता है, प्रतीत होता है और कसिण का दोष ज्ञात होता है। किन्तु प्रतिभागनिमित्त आकाश में रखे हुए मणिमय पंखे और मणिमय दर्पण के समान स्थिर होकर उपस्थित होता है। वह भिक्षु उस प्रतिभागनिमित्त के उपस्थित होने के साथ ही उपचारध्यान को एवं उक्त प्रकार से चतुर्थ पञ्चक ध्यान को प्राप्त करता है। आपोकसिण का वर्णन समाप्त।। तेजोकसिण ५. तेजोकसिण (तेज कृत्य) की भावना करने के अभिलाषी साधक को भी तेज में निमित्त का ग्रहण करना चाहिये। जिसने इसका अभ्यास पूर्व जन्म में किया हो, ऐसे पुण्यवान्, अकृत निमित्त का ग्रहण करने वाले को दीप-शिखा में, चूल्हे, बर्तन पकाने के स्थान, दावानल में या जहाँ कहीं भी अग्निपुञ्ज को देखते हुए निमित्त उत्पन्न होता है, चित्रगुप्त स्थविर के समान । उन आयुष्मान् को धर्मश्रवण के दिन उपोसथगृह में प्रवेश करने पर दीपशिखा को देखते देखते निमित्त उत्पन्न हो गया था। ६. दूसरों को कसिण-मण्डल बनाना चाहिये।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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