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________________ २२७ ४. पथवीकसिणनिद्देस वुत्तो त ? अतिसयनिरोधत्ता । अतिसयनिरोधो हि नेसं पठमज्झानादीसु, न निरोधो येव । निरोधो येव पन उपचारक्खणे, नातिसयनिरोधो । ७८. तथा हि नानावज्जने पठमज्झानुपचारे निरुद्धस्सा पि दुक्खिन्द्रियस्स डंसमकसादिसम्फस्सेन वा विसमासनुपतापेन वा सिया उप्पत्ति, न त्वेव अन्तो अप्पनायं । उपचारे वा निरुद्धं पेतं न सुट्टु निरुद्धं होति, पटिपक्खेन अविहतत्ता । अन्तोअप्पनायं पन पीतिफरणेन सब्बो कायो सुखोक्कन्तो होति, सुखोक्कन्तकायस्स च सुट्टु निरुद्धं होति दुक्खिन्द्रियं, पटिपक्खेन विहतत्ता । नानावज्जने येव च दुतियज्झानुपचारे पहीनस्स दोमनस्सिन्द्रियस्स, यस्मा एतं क्तिक्कविचारपच्चये पि कायकिलमथे चित्तुपघाते च सति उप्पज्जति । वितक्कविचाराभावे च नेव उप्पज्जति । यत्थ पन उप्पज्जति, तत्थ वितक्कविचारभावे अप्पहीना, एवं च दुतियज्झानुपचारे वितक्कविचारा ति तत्थस्स सिया उप्पत्ति, न त्वेव दुतियज्झाने, पहीनपच्चयत्ता । तथा ततियज्झानुपचारे पहीनस्सापि सुखिन्द्रियस्स पीतिसमुट्ठानपणीतरूपफुटकायस्स सिया उत्पत्ति, न त्वेव ततियज्ज्ञाने । ततियज्झाने हि सुखस्स पच्चयभूता पीति सब्बसो निरुद्धा ति । तथा चतुत्थज्झानुपचारे पहीनस्सा पि सोमनस्सिन्द्रियस्स आसन्नता अप्पनाप्पत्ताय उपेक्खाय अभावेन सम्मा अनतिक्कन्तत्ता च सिया उप्पत्ति, न त्वेव चतुत्थज्झाने । तस्मा च एत्थुत्पन्नं दुक्खिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झती ति तत्थ अपरिसेसग्गहणं कतं ति । ७९. एत्थाह—“ अथेवं तस्स तस्स झानस्सुपचारे पहीना पि एता वेदना इध कस्मा उत्तर- अतिशय निरोध होने के कारण। आशय यह है कि प्रथम ध्यान आदि में इनका अतिशय निरोध होता है, केवल निरोध नहीं। जबकि उपचार के क्षण में निरोध ही होता है, अतिशय निरोध नहीं । ७८, नाना आवर्जनों वाले प्रथम ध्यान के उपचार में निरुद्ध हो चुकी दुःखेन्द्रिय दंश, मशक आदि के स्पर्श अर्थात् दश या विषम आसन भोजन से होने वाले कष्ट से पुनः उत्पन्न हो सकती है: किन्तु अर्पणा में कभी उत्पन्न नहीं होती। अथवा, प्रतिपक्ष धर्मों का विनाश न होने से, उपचार में निरुद्ध यह दुःखेन्द्रिय अच्छी तरह निरुद्ध नहीं होती। किन्तु अर्पणा समस्त प्रीति के स्फुरण से कायसुख से परिपूर्ण होती है, सुख से परिपूर्ण काय वाले की दुःखेन्द्रिय प्रतिपक्ष के विनाश से अच्छी तरह निरुद्ध होती है। वैसे नाना आवर्जनों वाले द्वितीय ध्यान के उपचारक्षण में प्रहीण दौर्मनस्येन्द्रिय पुनः उत्पन्न हो सकती है, यदि वितर्क एवं विचार के कारण कायिक श्रान्ति (थकान) और चैतसिक पीड़ा हो। वितर्क-विचार के अभाव में वह उत्पन्न नहीं होती। वह जहाँ भी उत्पन्न होती है, वितर्क-विचार के होने पर ही होती है। अतः द्वितीय ध्यान के उपचार में वितर्क-विचार का प्रहाण न होने से वहाँ उसका उत्पाद होना सम्भव है, किन्तु स्वयं द्वितीय ध्यान में नहीं; क्योंकि प्रत्यय कारण का नाश हो चुका होता है। वैसे ही, तृतीय ध्यान के उपचार में प्रहीण हो चुकी सुखेन्द्रिय की प्रीतिसमुत्थान से समुद्भूत रूपकाय में पुनः उत्पत्ति सम्भव है, किन्तु स्वयं तृतीय ध्यान में नहीं। तृतीय ध्यान में तो सुख की प्रत्ययभूत प्रीति सर्वत: निरुद्ध हो जाती है। वैसे ही, चतुर्थ ध्यान के उपचारक्षण में प्रहीण हो चुकी सौमनस्येन्द्रिय उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि सौमनस्येन्द्रिय से समीपवर्ती होने से एवं अर्पणा प्राप्त न होने से उपेक्षा का अभाव होने के कारण सम्यक् रूप से उसका अतिक्रमण नहीं हुआ रहता; किन्तु वह चतुर्थ ध्यान में नहीं उत्पन्न हो सकती। इसीलिये यहाँ उत्पन्न हुई दुःखेन्द्रिय पूर्ण (= अशेष रूप से) निरुद्ध हो जाती है, ऐसा सूचित करने के लिये ही वहाँ उन स्थलों में 'अपरिशेष' शब्द का ग्रहण किया गया है ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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