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________________ २२८ विसुद्धिमग्ग समाहटा" ति? सुखग्गहणत्थं । या हि अयं अदुक्खमसुखं ति एत्थ अदुक्खमसुखा वेदना वुत्ता, सा सुखुमा दुविज्ञेय्या न सका सुखेन गहेतुं । तस्मा यथा नाम दुट्ठस्स यथा वा तथा वा उपसङ्कमित्वा गहेतुं असक्कुणेय्यस्स गोणस्स सुखग्गहणत्थं गोपो एकस्मि वजे सब्बा गावो समाहरति, अथेकेकं नीहरन्तो पटिपाटिया आगतं "अयं सो, गण्हथ नं" ति तं पि गाहयति, एवमेव भगवा सुखग्गहणत्थं सब्बा एता समाहरि। एवं हि समाहटा एता दस्सेत्वा यं नेव सुखं न दुक्खं न सोमनस्सं न दोमनस्सं, अयमदुक्खमसुखा वेदना ति सक्का होति एसा गाहयितुं। ८०. अपि च-अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया पच्चयदस्सनत्थं चा पि एता वुत्ता ति वेदितब्बा। दुक्खप्पहानादयो हि तस्सा पच्चया।अथाह-"चत्तारो खो,आवुसो, पच्चया अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया ।इधावुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना....पे०.... चतुत्थं झानं उपसम्पज्झ विहरति । इमे खो, आवुसो, चत्तारो पच्चया अदुक्खमसुखाय चेतोविमुत्तिया समापत्तिया" (म०नि०१-३६६) ति। ८१. यथा वा अञत्थ पहीना पि सक्कायदिट्ठिआदयो ततियमग्गस्स वण्णभणनत्थं तत्थ पहीना ति वुत्ता, एवं वण्णभणनत्थं पेतस्स झानस्सेता इध वुत्ता ति पि वेदितब्बा। पच्चयघातेन वा एत्थ रागदोसानमतिदूरभावं दस्सेतुं पेता वुत्ता ति वेदितब्बा । एतासु हि सुखं सोमनस्सस्स पच्चयो, सोमनस्सं रागस्स। दुक्खं दोमनस्सस्स पच्चयो, दोमनस्सं दोसस्स। सुखादिघातेन चस्स सप्पच्चया रागदोसा हता ति अतिदूरे होन्ती ति। ७९. यहाँ प्रश्न किया गया है-"ऐसे उस उस ध्यान के उपचार में प्रहीण हो चुकी ये वेदनाएँ यहाँ किसलिये लायी गयी हैं?" उत्तर- सरलता के साथ समझने के लिये। क्योंकि यहाँ जो अदुःख-असुख के रूप में अदुःख-असुख वेदना का उल्लेख किया गया है, वह सूक्ष्म है, दुर्विज्ञेय है एवं सरलता से समझ में आने योग्य नहीं है। इसलिये जैसे कि कोई ग्वाला किसी दुष्ट बैल को, जिसे पास जाकर पकड़ना सम्भव न हो, आसानी से पकड़ने के लिये एक बाड़े में सभी गाय-बैलों को इकट्ठा करता है, फिर एक एक को निकालते हुए क्रम से (उस दुष्ट, मरकहे बैल की बारी आने पर) “यही है, पकड़ लो इसे" ऐसा कहकर उसे भी पकड़वा देता है; वैसे ही भगवान् ने सरलतापूर्वक समझाने के लिये सभी वेदनाओं को एक साथ रखा। एक साथ इनको दिखाने से 'जो न सुख है, न दुःख है; न सौमनस्य है, न दौर्मनस्य है; वही अदुःख-असुख वेदना है'-इस प्रकार इसे समझाया जा सकता है। ८०. इसके अतिरिक्त, अदुःख-असुख की चेतोविमुक्ति (=चित्त की विमुक्ति) के प्रत्यय को दिखाने के लिये भी इन्हें बतलाया गया है-ऐसा जानना चाहिये । दुःख का प्रहाण आदि उसके प्रत्यय हैं। अतः कहा है- "आयुष्मन्! अदुःख-असुख चेतोविमुक्ति की प्राप्ति के चार प्रत्यय हैं। यहाँ, आयुष्मन्! भिक्षु सुख के प्रहाण से...पूर्ववत्...चतुर्थ ध्यान प्राप्त कर विहार करता है। ये ही, आयुष्मन्! अदुःख-असुख चेतोविमुक्ति की प्राप्ति के चार प्रत्यय है।" ८१. अथवा- यह समझना चाहिये कि जैसे अन्यत्र प्रहीण हो चुकी सत्कायदृष्टि आदि तृतीय मार्ग की प्रशंसा के उद्देश्य से वहाँ प्रहीण हुई बतलायी गयी हैं, वैसे ही वे इस ध्यान की प्रशंसा करने के लिये ही यहाँ भी कही गयी हैं। __ अथवा-प्रत्यय के नाश से यहाँ से राग-द्वेष आदि का अति दूर होना दिखाने के लिये भी ये यहाँ बतलायी गयी हैं-ऐसा समझना चाहिये। इनमें, सुख सौमनस्य का प्रत्यय है, सौमनस्य राग का।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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