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विसुद्धिमग्ग दोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। एवमनेन एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणंदसलक्खणसम्पन्न चतुत्थं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं।
७६. तत्थ सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना ति। कायिकसुखस्स च कायिकदुक्खस्स च पहाना। पुब्बे वा ति। तं च खो पुब्बेव, न चतुत्थज्झानक्खणे। सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा ति। चेतसिकसुखस्स च चेतसिकदुक्खस्स चा ति। इमेसं पि द्विन्नं पुब्बेन अत्थङ्गमा, पहाना इच्चेव वुत्तं होति।
कदा पन नेसं पहानं होती ति? चतुन्नं झानानं उपचारक्खणे। सोमनस्सं हि चतुत्थज्झानस्स उपचारक्खणे येव पहीयति । दुक्खदोमनस्ससुखानि पठमदुतियततियज्झानानं उपचारक्खणेसु। एवमेतेसं पहानक्कमेन अवुत्तानं पि इन्द्रियविभङ्गे पन इन्द्रियानं उद्देसक्कमेनेव इधापि वुत्तानं सुखदुक्खसोमनस्सदोमनस्सानं पहानं वेदितब्बं ।
७७. यदि पनेतानि तस्स तस्स झानस्स उपचारक्खणे येव पहीयन्ति, अथ कस्मा "कत्थ चुप्पन्नं दुक्खिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झति? इध, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेहि ....पे०....पठमं झानं उपसम्पज विहरति। एत्थ चुप्पन्नं दुक्खिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झति। कत्थ चुप्पन्नं दोमनस्सिन्द्रियं, सुखिन्द्रियं, सोमनस्सिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झति? इध, भिक्खवे, भिक्खु सुखस्स च पहाना.... पे०.... चतुत्थं झानं उपसम्पज विहरति, एत्थ
चुप्पन्नं सोमनस्सिन्द्रियं अपरिसेसं निरुज्झती" (सं० ४-१८५) ति एवं झानेस्वेव निरोधो अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । एवमनेन एकाविप्पहीनं दुवासमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं चतुत्थं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं"-इस पालिपाठ का व्याख्यान पूर्ण हो गया।
७६. अब इस पालिपाठ में आये विशिष्ट शब्दों का व्याख्यान कर रहे हैं-"सुखस्सं च पहाना दुक्खस्स च पहाना" (सुख के प्रहाण एवं दुःख के प्रहाण से)-कायिक सुख एवं कायिक दुःख के प्रहाण से। पुबेव- और वह भी पहले ही, चतुर्थ ध्यान के क्षण में नहीं। सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थामा (सौमनस्य-दौर्मनस्य के विनाश से)-चैतसिक सुख के एवं चैतसिक दुःख के विनाश से। इन दोनों ही का पहले ही विनाश (प्रहाण) हो जाने से यह कहा गया है। उनका विनाश कब होता है? चारों ध्यानों के उपचार के क्षण में । सौमनस्य का तो चतुर्थ ध्यान के उपचारक्षण में ही प्रहाण होता है। दुःख, दौर्मनस्य और सुख का क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय ध्यानों के उपचार-क्षणों में । इस प्रकार इनका प्रहाण यद्यपि क्रमानुसार नहीं बतलाया गया है, फिर भी इन्द्रियविभा में इन्द्रियों के वर्णनक्रम के अनुसार ही यहाँ भी कथित सुख, दुःख, सौमनस्य और दौर्मनस्य का प्रहाण जानना चाहिये।
७७. प्रश्न-किन्तु यदि इनका प्रहाण उस उस ध्यान के उपचार-क्षण में ही हो जाता है, तो इस प्रकार स्वयं ध्यान में ही उनका निरोध क्यों बतलाया गया है-"कहाँ उत्पन्न हुई दुःखेन्द्रिय पूर्णत निरुद्ध होती है? यहाँ, भिक्षुओ, भिक्षु कामों से रहित होकर.पूर्ववत् ...प्रथम ध्यान प्राप्त करता है। यहाँ उत्पन्न हुई दुःखेन्द्रिय पूर्णतः निरुद्ध होती है। कहाँ उत्पन्न हुई दौर्मनस्येन्द्रिय, सुखेन्द्रिय, सौमनस्येन्द्रिय पूर्णतः निरुद्ध होती हैं? यहाँ भिक्षुओ, भिक्षु सुख के प्रहाण के कारण चतुर्थ ध्यान प्राप्त कर विहार करता यहाँ उत्पन्न हुई सौमनस्येन्द्रिय पूर्णतः निरुद्ध होती है?"