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४. पथवीकसिणनिद्देस
२१५ सद्धाय "सम्पसादनं" ति न वुत्तं । न सुप्पसन्नत्ता येव चेत्थ समाधि पि न सुट्ठ पाकटो, तस्मा "एकोदिभावं" ति पि न वुत्तं । इमस्मि पन झाने वितकविचारपलिबोधाभावेन लद्धोकासा बलवती सद्धा, बलवसद्धासहायपटिलाभेनेव च समाधि पि पाकटो, तस्मा इमदेव एवं वुत्तं ति वेदितब्बं । विभते पन “सम्पसादनं ति या सद्धा सद्दहना ओकप्पना अभिप्पसादो। चेतसो एकोदिभावं ति या चित्तस्स ठिति ....पे०.... सम्मासमाधी" (अभि० २-३१०)ति एत्तकमेव वुत्तं । एवं वुतेन पन तेन सद्धि अयं अत्थवण्णना यथा न विरुज्झति, अजदत्थु संसन्दति चेव समेति च, एवं वेदितब्बा।
५७. अवितकं अविचारं ति । भावनाय पहीनता एतस्मि, एतस्स वा वितको नत्थी ति अवितकं । इमिना व नयेन अविचारं । विभड़े पि वुत्तं-"इति अयं च वितको अयं च विचारो सन्ता होन्ति समिता, वूपसन्ता अत्थङ्गता अब्भत्थङ्गता अप्पिता व्यप्पिता विसोसिता ब्यन्तीकता, तेन वुच्चति अवितकं अविचारं" ति!
५८. एत्थाह-"ननु च वितकविचारानं वूपसमा ति इमिना पि अयमत्थो सिद्धो, अथ कस्मा पुन वुत्तं अवितकं अविचारं" ति? वुच्चते-एवमेतं; सिद्धो वायमत्थो, न पनेतं तदत्थदीपकं । ननु अवोचुम्ह-"ओळारिकस्स पन अङ्गस्स समतिकमा पठमज्झानतो परेसं दुतियज्झानादीनं समधिगमो होती ति दस्सनत्थं 'वितकविचारानं वूपसमा' ति एवं वुत्तं" ति।
'अपि च वितकविचारानं वूपसमा इदं सम्पसादनं, न किलेसकालुस्सियस्स। (उत्ताल तरङ्ग) और तरङ्गो (छोटी लहरों) द्वारा चञ्चल (=समाकुल) जल के समान भलीभाँति प्रसन्न नहीं होता, अतः (श्रद्धा के) रहने पर भी श्रद्धा को प्रसन्नता (सम्प्रसादन) नहीं कहा गया है। भलीभाँति प्रसन्न न होने से ही यहाँ प्रथम ध्यान में समाधि भी भलीभाँति प्रकट नहीं हो पाती, अतः ‘एकोदय भाव' भी नहीं कहा गया। किन्तु इस द्वितीय ध्यान में वितर्क विचाररूप बाधाओं का अभाव होने से, श्रद्धा को सबल होने का अवसर मिलता है, सबल श्रद्धा की सहायता पाकर समाधि भी प्रकट होती है, अत: इस द्वितीय ध्यान को ही ऐसा कहा गया है-ऐसा समझना चाहिये।
किन्तु विभङ्ग में "श्रद्धा, श्रद्धा करना, विश्वास, प्रसन्नता ही सम्प्रसादन है। चित्त की स्थिति पूर्ववत् सम्यक्समाधि ही एकोदय भाव है" (श्रद्धा और सम्प्रसादन को) एक ही अर्थ में कहा गया है। इस कथन के साथ इस (उपर्युक्त) अर्थ का विरोध नहीं है, अपितु वह भी इसे मिलता है एवं इसके समान है--ऐसा समझना चाहिये।
५७ अवितकं अविचारं (अवितर्क-अविचार)। भावना का प्रहाण हो जाने से इसमें या इसका वितर्क नहीं है, अतः ‘अवितर्क है। इसी प्रकार ‘अविचार' है। विभा में भी कहा गया है-"क्योंकि ये वितर्क और ये विचार शान्त (निरोधप्राप्त) शमित, वहीं भलीभाँति शमित, विनष्ट, भलीभाँति विनष्ट, (प्रवृत्ति नामक सन्तति के अभाव के कारण) शोषित (शुष्क), समाप्त (अन्तप्राप्त) हो जाते हैं, अतः 'अवितर्क-अविचार' कहे जाते हैं।'
५८ यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है-"वितर्क-विचारों का शमन हो जाने से"-इस कथन से भी तो यही (उपर्युक्त) अर्थ सिद्ध होता है, फिर पुनः"अवितर्क अविचार" क्यों कहा गया? उत्तर हैबात आप की ठीक ही है, अथवा यह अर्थ सिद्ध है, किन्तु यह अर्थ को स्पष्ट करने वाला नहीं है।' क्या हमने पहले नहीं कहा था-"स्थूल अङ्गों के समतिक्रमण से प्रथम ध्यान से भिन्न द्वितीय ध्यान आदि की प्राप्ति होती है, इसे समझाने के लिये 'वितर्क-विचारों के शमित हो जाने से ऐसा कहा गया है।"