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________________ २१६ विसुद्धिमग्ग वितकविचारानं च वूपसमा एकोदिभावं, न उपचारज्झानमिव नीवरणप्पहाना, पठमज्झानमिव च न अङ्गपातुभावा ति एवं सम्पसादनएकोदिभावानं हेतुपरिदीपकमिदं वचनं। तथा वितकविचारानं वूपसमा इदं अवितकं अविचारं, न ततियचतुत्थज्झानानि विय चक्खुविाणादीनि विय च अभावा ति एवं अवितकअविचारभावस्स हेतुपरिदीपकं च, न वितकविचाराभावमत्तपरिदीपकं । वितकविचाराभावमत्तपरिदीपकमेव पन "अवितकं अविचारं" ति इदं वचनं । तस्मा पुरिमं वत्वा पि वत्तब्बमेवा ति। ५९. समाधिजं ति। पठमज्झानसमाधितो सम्पयुत्तसमाधितो वा जातं ति अत्थो। तत्थ किञ्चापि पठमं पि सम्पयुत्तसमाधितो जातं, अथ खो अयमेव समाधि "समाधी" ति वत्तब्बतं अरहति, वितकविचारक्खोभविरहेन अतिविय अचलत्ता, सुप्पसन्नत्ता च । तस्मा इमस्स वण्णभणनत्थं इदमेव "समाधिजं" ति वुत्तं । पीतिसुखं ति। इदं वुत्तनयमेव। ६०. दुतियं ति। गणनानुपुब्बता दुतियं । इदं दुतियं समापज्जती ति पि दुतियं । यं पन वुत्तं-"दुवङ्गविप्पहीनं तिवङ्गसमन्नागतं" ति। तत्थ वितकविचारानं पहानवसेन दुवङ्गविप्पहीनता वेदितब्बा। यथा च पठमज्झानस्स उपचारक्खणे नीवरणानि पहीयन्ति, न तथा इमस्स वितझविचारा । अप्पनाक्खणे येव पनेतं तेहि उप्पज्जति । तेनस्स ते "पहानङ्गं" ति वुच्चन्ति। पीति, सुखं, चित्तेकग्गता ति इमेसं पन तिण्णं उप्पत्तिवसेन तिवङ्गसमन्नागतता वेदितब्बा। तस्मा यं विभड़े "झानं ति सम्पसादो पीति सुखं चित्तस्स एकग्गता" (अभि० और भी-वितर्क-विचारों का भलीभाँति शमन ही सम्प्रसादन है, क्लेश (रूप) कालुष्य (अपवित्रता) का नहीं। इसी प्रकार इस ध्यान में वितर्क-विचारों का शमन ही एकोदय भाव है, उपचार-ध्यान में जैसे होता है उस के समान नीवरणों का प्रहाण नहीं, न ही प्रथम ध्यान के समान अङ्गों का ही प्राप्त होना । इस प्रकार यह वचन सम्प्रसादन एवं एकोदय भाव के हेतु को स्पष्ट करने वाला है। इसी तरह इस ध्यान में वितर्क-विचारों का शमन ही अवितर्क-अविचार है, तृतीय-चतुर्थ ध्यानों के समान एवं चक्षुर्विज्ञान आदि के समान उनका अभाव होना नहीं । इस प्रकार यह वचन अवितर्कअविचार के भाव (-होने) के हेतु को सूचित करता है, वितर्क-विचार के अभावमात्र को नहीं। जबकि "अवितर्क-अविचार" यह वचन वितर्क-विचार के अभावमात्र का ही सूचक है। इसलिये पहले कहे जाने पर भी पुनः कहना उचित ही था। ५९. समाधि (समाधि से उत्पन्न)-प्रथम ध्यान रूप समाधि से या सम्प्रयुक्त समाधि से उत्पन्न । यद्यपि प्रथम ध्यान भी सम्प्रयुक्त समाधि से उत्पन्न है, तथापि यही समाधि वितर्क-विचारजन्य क्षोभ से रहित होने के कारण अत्यधिक स्थिर एवं भलीभाँति प्रसन्नता से युक्त होने से 'समाधि' कही जाने योग्य है-यह बताने के लिये इसी को "समाधि से उत्पन्न" कहा गया है। पीतिसुखं- पूर्वोक्त के अनुसार ही समझना चाहिये। ६०. दुतियं- गणना-क्रम में द्वितीय । यह दूसरी बार प्राप्त होता है, इस लिये भी द्वितीय है। जो कहा गया है- 'दो अङ्गों से रहित, तीन अङ्गों से युक्त'-वहाँ वितर्क-विचार के प्रहाण के रूप में इसकी दो अङ्गों से रहितता जाननी चाहिये । और जैसे प्रथम ध्यान के उपचार-क्षण में नीवरणों का प्रहाण होता है, वैसे इस ध्यान के उपचार-क्षण में वितर्क-विचारों का प्रहाण नहीं होता। केवल अर्पणा के क्षण में ही यह ध्यान उनके विना उत्पन्न होता है। इसलिये वे इसके प्रहाणात कहे जाते हैं। प्रीति, सुख, चित्तैकाग्रता-इन तीनों की उत्पत्ति के रूप में तीन अङ्गों से समन्वागत होना' जानना चाहिये। इसलिये विभा में जो यह कहा गया है-"ध्यान : प्रसन्नता, प्रीति, सुख, एकाग्रता" वह परिष्कार
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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