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विसुद्धिमग्ग ५४. अज्झतं ति। इध नियकज्झत्तं अधिप्पेतं! विभड़े पन "अज्झत्तं पच्चत्तं" ति एत्तकमेव वुत्तं । यस्मा च नियकज्झतं अधिप्पेतं, तस्मा अत्तनि जातं, अत्तनो सन्ताने निब्बत्तं ति अयमेत्थ अत्थो। सम्पसादनं ति। सम्पसादनं वुच्चति सद्धा। सम्पसादनयोगतो शानं पि सम्पसादनं । नीलवण्णयोगतो नीलवत्थं विय । यस्मा वा तं झानं सम्पसादनसमन्त्रागतत्ता वितक-विचारक्खोभवूपसमनेन च चेतसो सम्पसादयति, तस्मा पि सम्पसादनं ति वुत्तं । इमस्मि च अत्थविकप्पे सम्पसादनं चेतसो ति एवं पदसम्बन्धो वेदितब्बो। पुरिमस्मि पन अत्थविकप्पे चेतसो ति एतं एकोदिभावेन सद्धिं योजेतब्बं ।
५५. तत्रायं अत्थयोजना-एको उदेती ति एकोदि, वितक्कविचारेहि अनज्झारूळहत्ता अग्गो सेट्ठो हुत्वा उदेती ति अत्थो । सेट्ठो पि हि लोके एको ति वुच्चति। वितकविचारविरहतो वा एको असहायो हुत्वा इति पि वतुं वट्टति । अथ वा सम्पयुत्तधम्मे उदायती ति उदि, उट्ठापेती ति अत्थो । सेट्ठवेन एको च सो उदि चा ति एकोदि, समाधिस्सेतं अधिवचनं । इति इमं एकोदिं भावेति वड्वेती ति इदं दुतियज्झानं एकोदिभावं। सो पनायं एकोदि यस्मा चेतसो, न सत्तस्स, न जीवस्स, तस्मा एतं चेतसो एकोदिभावं ति वुत्तं ।
५६. ननु चायं सद्धा पठमझाने पि अत्थि, अयं च एकोदिनामको समाधि, अथ कस्मा इदमेव "सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं चा" ति वुत्तं? वुच्चते-अदुं हि पठमज्झानं वितकविचारक्खोभेन वीचितरङ्गसमाकुलमिव जलं न सुप्पसन्नं हति, तस्मा सतिया पि
५४. अज्झत्तं- अध्यात्म (=आभ्यन्तर)। स्वयं का अध्यात्म। किन्तु विभङ्ग मे"अध्यात्म-प्रत्यात्म" इस प्रकार दोनों को एक के रूप में ही कहा गया है। क्योकि यहाँ स्वयं का अध्यात्म अभिप्रेत है, अतः यहाँ 'स्व (चित्त-) सन्तति में उत्पन्न'-यही अर्थ है।
सम्पसादनं (प्रसन्नता)- प्रसन्नता 'श्रद्धा' को कहते हैं। प्रसन्नता के योग से ध्यान भी प्रसन्नता रूप होता है, जैसे नीले रंग के योग से 'नीला वस्त्र' कहा जाता है। अथवा, क्योंकि यह ध्यान प्रसन्नतायुक्त होने के कारण वितर्क-विचार रूप क्षोभ का शमन करने से चित्त को प्रसन्न करता है, इसलिये भी प्रसन्नतारूप कहा जाता है। यह अर्थ मानने पर "चित्त की प्रसन्नता"-ऐसा पद-सम्बन्ध
ना चाहिये। किन्तु पहले वाला अर्थ मानने पर "चित्त का" शब्द को एकान्त भाव ( एकोदित भाव) के साथ जोड़ना चाहिये।
५५. यहाँ ‘एकोदिभाव' शब्द की अर्थ-योजना इस प्रकार है- (१) अकेले उदित होता है। अतः एकोदित है। (२) वितर्क-विचार इस पर आरूढ़ नहीं हैं, अतः अग्र, श्रेष्ठ होकर उदित होता हैयह अर्थ है। (३) क्योकि श्रेष्ठ को ही लोक में 'एक' कहते हैं। (४) या यह भी कहा जा सकता है कि वितर्क-विचार से रहित, अकेला, असहाय होकर उदित होता है। (५) या सम्प्रयुक्त धर्मों को उदित करता है अतः उदय (= उदि) है, जिसका अर्थ है-उदित करता है। (६) श्रेष्ठ के अर्थ में एक है और वह उदित करता है अतः "एकोदित' है। यह समाधि का अधिवचन (पर्याय) है। (७) क्योंकि यह एकोदित की भावना करता है, बढ़ाता है, अतः यह ध्यान एकोदयभाव है। और (८) क्योंकि यह एकोदय चित्त का है, सत्त्व का या जीव का नहीं, अतः इसे चित्त का एकोदयभाव कहा गया है।
५६ किन्तु यह श्रद्धा तो प्रथम ध्यान में भी होती है और वही एकोदय नामक समाधि है, तब क्यों इसे ही "प्रसन्नता और चित्त का एकोदय भाव" कहा गया है?
इसका उत्तर है-इसलिये, क्योंकि प्रथम ध्यान वितर्क-विचारजन्य क्षोभ के कारण वीचि