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४. पथवीकसिणनिद्देस
२११ वितकविचारानं वूपसमा ....पे०....दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरितुं । तस्सेवं होति यं नूनाह विविच्चेव कामेहि ....पे०....पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरितुं। अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु उभतो भट्ठो, उभतो परिहीनो, सेय्यथापि गावी पब्बतेय्या बाला अब्यत्ता अखेत्तजू अकुसला विसमे पब्बते चरितुं"(अं०४-५७)ति । तस्मानेन तस्मि येव ताव पठमझाने पञ्चहाकारेहि चिण्णवसिना भवितब्बं ।
पञ्चवसीकथा ५२. तत्रिमा पञ्च वसियो-१.आवजनवसी, २. समापज्जनवसी, ३. अधिदानबसी, ४. वुट्ठानवसी, ५. पच्चवेक्षणवसी ति। पठमं झानं यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावदिच्छक
आवजेति, आवजनाय दन्धायितत्तं नत्थी ति आवज्जनवसी। पठमं झानं यत्थिच्छकं .....पे०....समापज्जति, समापज्जनाय दन्धायितत्तं नत्थी ति समापजनवसी। एवं सेसापि वित्थारेतब्बा।
अयं पनेत्थ अत्थप्पकासना
(१) पउमज्झानतो वुट्ठाय पठमं वितकं आवजयतो भवङ्ग उपच्छिा दत्वा उप्पनावज्जनानन्तरं वितकारम्मणानेव चत्तारि पञ्च वा जवन्ति, ततो द्वे भवङ्गानि, ततो पुन विचारारम्मणं आवजनं, वुत्तनयानेव जवनानी ति एवं पञ्चसु झानङ्गेसु यदा निरन्तरं चित्तं पेसेतुं सक्कोति, अथस्स आवजनवसी सिद्धा होति । अयं पन मत्थकप्पत्ता वसी भगवतो यमकपाटिहारिये लब्भति, अजेसं वा एवरूपे काले। इतो परं सीघतरा आवजनवसी नाम नत्थि । होकर... प्रथम ध्यान प्राप्त कर विहार करूँ।" किन्तु अब वह कामों से रहित होकर प्रथम ध्यान प्राप्त कर विहार करने में भी समर्थ नही होता । भिक्षुओ, इसी भिक्षु के लिये कहा जाता है कि वह दोनों ओर से भ्रष्ट हो गया, दोनों ओर से हीन हो गया; जैसे कि वह पहाड़ी, मूर्ख, अनुभवहीन, चरने का स्थान न जानने वाली गाय ऊँचे-नीचे पहाड पर चरने में निपुण नहीं होती" (अं०नि०४.५७)।
इसलिये उस भिक्षु को सर्वप्रथम उसी प्रथम ध्यान में पाँच प्रकार की दशिताएँ ( यथारुचि प्रवृत्ति की क्षमता) प्राप्त करनी चाहिये।। पाँच वशिताएँ
५२. वे पाँच वशिताएँ ये हैं- १. आवर्जनवशिता, (=ध्यान देना, मन को विषयोन्मुख करना)-२. (ध्यान) प्राप्तिवशिता, ३, अधिष्ठानवशिता, ४. उत्थानवशिता, ५. प्रत्यवेक्षणवशिता । जो प्रथम ध्यान की ओर जहाँ चाहे, जब चाहे, जब तक चाहे तब तक आवर्जन करता है वह आवर्जनवशी है। जो प्रथम ध्यान को जहाँ चाहे....प्राप्त करता है, प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती वह आवर्जन को सम्यक्तया प्राप्त करने में वशी है। इसी प्रकार शेष की भी व्याख्या कर लेनी चाहिये।
यहाँ इस अर्थ (व्याख्या) का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- (१) जब वह प्रथम ध्यान से उठता है और सर्वप्रथम वितर्क की ओर आवर्जन करता है, तब भवाङ्ग का उपच्छेद करते हुए उत्पन्न होने वाले आवर्जन के पश्चात् वितर्क को ही आलम्बन बनाकर चार या पाँच जवनचित्त जवन करते हैं। तत्पश्चात् दो भवाङ्ग, तत्पश्चात् विचार को आलम्बन बनाने वाला आवर्जन, उपर्युक्त प्रकार से जवनइस प्रकार पाँच ध्यानाङ्गों में जब वह भिक्षु चित्त को निरन्तर प्रेषित करने में समर्थ होता है, तब वह आवर्जनवशिता में सिद्ध हो गया होता है। किन्तु यह वशिता अपने चरम रूप में भगवान् के