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विसुद्धिमग्ग (२)आयस्मतो पन महामोग्गल्लानस्स नन्दोपनन्दनागराजदमने विय सीघं समापजनसमत्थता समापजनवसी नाम।
(३) अच्छरामत्तं वा दसच्छरामत्तं वा खणं ठपेतुं समत्थता अधिट्ठानवसी नाम ।
(४) तथैव लहुं वुट्ठातुं समत्थता वुढानवसी नाम। तदुभयदस्सनत्थं बुद्धरक्खितत्थेरस्स वत्थु कथेतुं वट्टति।।
सो हायस्मा उपसम्पदाय अट्ठवस्सिको हुत्वा थेरम्बत्थले महारोहणगुणत्थेरस्स गिलानुपट्टानं आगतानं तिंसमत्तानं इद्धिमन्तसहस्सान मज्झे निसिन्नो, “थेरस्स यागु पटिग्गाहयमानं उपट्ठाकनागराजानं गहेस्सामी" ति आकासतो पक्खन्दन्तं सुपण्णराजानं दिस्वा तावदेव पब्बतं निम्मिनित्वा नागराजानं बाहायं गहेत्वा तत्थ पाविसि। सुपण्णराजा पब्बते पहारं दत्वा पलायि। महाथेरो आह-"सचे, आवुसो, बुद्धरक्खितो नाभविस्स, सब्बे व गारव्हा अस्सामा" ति।
(५) पच्चवेखणवसी पन आवजनवसिया एव वुत्ता। पच्चवेक्खणजवनानेव हि तत्थ आवजनानन्तरानी ति॥
दुतियज्झानकथा ५३. इमासु पन पञ्चसु वसीसु चिण्णवसिना पगुणपठमज्झानतो वुट्ठाय "अयं समापत्ति आसन्ननीवरणपच्चत्थिका, वितकविचारानं ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला" ति च तत्थ दोसं दिस्वा दुतियं झानं सन्ततो मनसिकत्वा पठमज्झाने निकिन्तिं परियादाय दुतियाधिगमाय योगो कातब्बो। यमकप्रातिहार्य (द्र० पटिसम्भिदामग्ग, १.६०) में ही पायी जाती है या अन्यों के तद्रूप समय में । उससे शीघ्रतर अन्य कोई आवर्जनवशिता नहीं है।
(२) आयुष्मान् महामोग्गलान द्वारा नन्द, उपनन्द नागराज के दमन के समान शीघ्र प्राप्ति की क्षमता प्राविशिता (समापादनवशिता) है।
(३) एक चुटकी (अक्षरा) या दस चुटकी बजाने में जितना समय लगता है, उतने समय तक ध्यान को रोके रहने की क्षमता ही अधिष्ठानवशिता है।
(४) वैसे ही (ध्यान से) शीघ्र उठने की क्षमता उत्थानवशिता है। इन अन्तिम दोनों के उदाहरण के रूप में बुद्धरक्षित स्थविर की कथा कहनी चाहिये।
वे आयुष्मान् जब उपसम्पदा-प्राप्ति के बाद, आठ वर्ष बीतने पर, स्थविरामस्थल में महारोहणगुण स्थविर की परिचर्या करने के लिये आये हुए तीस हजार ऋद्धिमानों के बीच में बैठे हुए थे "स्थविर को जब यवागु देगा तब इस सेवक नागराज को पकडूंगा"-ऐसा (सोचकर) आकाश से झपटते हुए गरुड़राज को देखने पर स्थविर उसी समय एक पर्वत ऋद्धिबल से निर्मित कर नागराज को बाँहों से पकड़कर उस पर्वत में प्रवेश कर गये। गरुड़राज पर्वत पर प्रहार कर भाग गया। महास्थविर ने कहा-"आयुष्मन्! यदि इस समय बुद्धरक्षित यहाँ न होते, तो आज हम सबको लज्जित होना पड़ता।"
(५) प्रत्यवेक्षणवशिता का वर्णन आवर्जनवशिता के समान ही किया गया है, क्योंकि आवर्जन के अनन्तर ही प्रत्यवेक्षण-जवन होते हैं।। द्वितीय ध्यान
५३. इत पाँच वशिताओं में निपुणताप्राप्त भिक्षु को उस अभ्यस्त प्रथम ध्यान से उठकर "यह समापत्ति (=ध्यान की प्राप्ति) प्रतिपक्षभूत नीवरणों की समीपवर्ती है, वितर्क-विचारों की स्थूलता के