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विशुद्धिमग्ग
५१. तस्मि पन निमित्ते पत्तपठमज्झानेन आदिकम्मिकेन समापज्जनबहुलेन भवितब्बं, न पच्चवेक्खणबहुलेन । पच्चवेक्खणबहुलस्स हि झानङ्गानि थूलानि दुब्बलानि हुत्वा उपट्टहन्ति अथस्स तानि एवं उपट्ठितत्ता उपरि उस्सक्कनाय पच्चयतं आपज्जन्ति । सो अप्पगुणे झाने उस्सुक्कमानो पत्तपठमज्झाना च परिहायति, न च सक्कोति दुतियं पापुणितुं ।
तेनाह भगवा
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"सेय्यथापि, भिक्खवे, गावी पब्बतेय्या बाला अब्यत्ता अखेत्तजू अकुसला विसमे पब्बते चरितुं । तस्सा एवमस्स यं नूनाहं अगतपुब्बं चेय दिसं गच्छेय्यं, अखादितपुब्बानि च तिणानि खादेय्यं, अपीतपुब्बानि च पानीयानि पिबेय्यं ति । सा पुरिमं पादं न सुप्पतिट्ठितं पतिट्ठापेत्वा पच्छिमं पादं उद्धरेय्य, सा न चेव अगतपुब्बं दिसं गच्छेय्य, न च अखादितपुब्बानि तिणानि खादेय्य, न च अपीतपुब्बानि पानीयानि पिबेय्य । यस्मि चस्सा पदेसे ठिताय एवमस्सा यं नूनाहं अगतपुब्बं चेव....पे०.... पिबेय्यं ति । तं च पदेसं न सोत्थिना पच्चागच्छेय्य । तं किस्स हेतु ? तथा हि सा, भिक्खवे, गावी पब्बतेय्या बाला अब्यत्ता अखेत्तञ्जू अकुसला विसमे पब्बते चरितुं । एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चो भिक्खु बालो अब्यत्तो अखेत्त अकुसलो विविच्चेव कामेहि.... पे०.... पठनं झानं उपसम्पज्ज विहरितुं । सो तं निमित्तं नासेवति, न भावेति, न बहुलीकरोति, न स्वाधिट्ठितं अधिट्ठाति । तस्स एवं होति यं नूनाहं वितक्कविचारानं वूपसमा . .....पे..... दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरेय्यं ति । सोन सक्कोति स्थान, नदी, दुर्गम स्थल, विषम पर्वतों पर सौ कीलें गाड़कर फैलाये गये बैल के चमड़े के समान होता है ।
५१. उस निमित्त में प्रथम ध्यान प्राप्त करने वाले प्रारम्भिक योगी को अधिक समय तक ध्यान की स्थिति में रहना चाहिये। अधिकतर प्रत्यवेक्षण नहीं करना चाहिये। जो अधिक प्रत्यवेक्षण करता है, उसके ध्यानाङ्ग स्थूल और दुर्बल रूप में उपस्थित होते हैं। वे इस प्रकार उपस्थित होने पर, आगे के विषय में उत्सुकता के कारण बन जाते । वह भिक्षु अल्पगुण, अपरिचित या उच्चस्तरीय ध्यान के विषय में उत्सुक होने पर प्राप्त प्रथम ध्यान से भी हाथ धो बैठता है और द्वितीय ध्यान तो प्राप्त ही नहीं कर पाता !
इसलिये भगवान् ने कहा है-" जैसे, भिक्षुओ, कोई पहाड़ी, मूर्ख, अनुभवहीन, चरने के स्थान को न जानने वाली अकुशल गाय ऊँची नीची पहाड़ी भूमि पर चरने में निपुण न हो, वह ऐसा विचार करे- 'क्यों न मैं पहले न गये स्थान पर जाऊँ, पहले न खायी घास खाऊँ, पहले न पिया जल पिऊँ' और अगले पैर को अच्छी तरह से टिकाये विना पिछला पैर उठा ले तब वह न अगत स्थान पर ही जा पायगी, न पहले अभुक्त घास खा पायगी, न पहले न पीया जल ही पी पायगी। इतना ही नहीं, वह उस स्थान पर सुरक्षित नहीं लौट सकेगी जहाँ खड़ी होकर उसने सोचा था कि 'क्यों न मैं न गये हुए ... पूर्ववत् पिऊँ; क्योंकि, भिक्षुओ, वह पहाड़ी, मूर्ख, अनुभवहीन, चरने की जगह को न जानने वाली गाय असमतल पहाड़ पर चरने में निपुण नहीं है। इसी प्रकार, भिक्षुओ, यहाँ कोई कोई मूर्ख, अनुभवहीन, क्षेत्र को न जानने वाला भिक्षु कामों से रहित होकर प्रथम ध्यान को प्राप्तकर विहार करने में निपुण नहीं होता। वह उस निमित्त का न सेवन करता है, न भावना करता है, न वृद्धि करता है, न उसे भलीभाँति प्रतिष्ठित करता है। वह ऐसा सोचता है- 'क्यों न मैं वितर्क-विचार का उपशमन कर .... द्वितीय ध्यान प्राप्त कर विहार करूं।' वह वितर्क-विचारों का उपशम होने पर द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर विहार करने में समर्थ नहीं होता। तब वह सोचता है-'क्यों न मैं कामों से रहित