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४. पथवीकसिणनिद्देस
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चित्तभावनावेपुल्लत्थं च यथालद्धं पटिभागनिमित्तं वड्डेतब्बं । तस्स द्वे वड्ढनाभूमियो - उपचारं, वा, अप्पनं वा। उपचारं पत्वा पि हि तं वड्ढेतुं वट्टति, अप्पनं पत्वा पि । एकस्मि पन ठाने अवस्सं वड्ढेतब्बं । तेन वुत्तं - " यथालद्धं पटिभागनिमित्तं वड्ढेतब्बं" ति ।
निमित्तवडूननयो
४९. तत्रायं वढननयो - तेन योगिना तं निमित्तं पत्तवन-पूववडून-भत्तवडुनलतावडून- दुस्सवढनयोगेन अवेत्वा यथा नाम कस्सको कसितब्बट्ठानं नङ्गलेन परिच्छिन्दित्वा परिच्छेदब्भन्तरे सति, यथा वा पन भिक्खू सीमं बन्धन्ता पठमं निमित्तानि सल्लवखेत्वा पच्छा बन्धन्ति; एवमेव तस्स यथालद्धस्स निमित्तस्स अनुक्क मेन एकङ्गुलद्वङ्गुलतिवङ्गुलचतुरङ्गुलमत्तं मनसा परिच्छिन्दित्वा यथापरिच्छेदं वड्डेतब्बं । अपरिच्छिन्दित्वा पन न वड्ढेतब्बं । ततो विदत्थि-रतन- पमुख - परिवेण - विहारसीमानं गामनिगम - जनपद - रज्ज - समुद्दसीमानं च परिच्छेदवसेन वड्डयन्तेन चक्कबाळपरिच्छेदेन वा ततो वापि उत्तरि परिच्छिन्दित्वा वड्वेतब्बं ।
५०. यथा हि हंसपोतका पक्खानं उट्ठितकालतो पट्ठाय परित्तं परित्तं पदेसं उप्पतन्ता परिचयं कत्वा अनुक्कमेन चन्दिमसूरियसन्तिकं गच्छन्ति; एवमेव भिक्खु वुत्तनयेन निमित्तं परिच्छिन्दित्वा वड्ढेन्तो याव चक्कवाळपरिच्छेदा ततो वा उत्तरि वड्ढेति । अथस्स तं निमित्तं वडितवडितट्ठाने पथविया उक्कूल - विकूल - नदी - विदुग्ग- पब्बतविसमेसु सङ्कुसतसमब्भाहतं उसभचम्मं विय होति ।
करना चाहिये । एवं भावना (=समाधि भावना) की परिपूर्णता के लिये, जैसा प्रतिभागनिमित्त उसने प्राप्त किया है, उसे बढ़ाना चाहिये । यहाँ इस वृद्धि के लिये दो उपाय हैं- १. उपचार एवं २. अर्पणा । उपचार प्राप्त करने पर उसे बढ़ाना चाहिये, अर्पणा प्राप्त करने पर भी उसे बढ़ाना चाहिये। किन्तु किसी एक में तो अवश्य बढ़ाना चाहिये, इसीलिये कहा है-" जैसा प्रतिभागनिमित्त प्राप्त हुआ है, उसे बढ़ाना चाहिये।"
निमित्त को बढ़ाने की विधि
४९. उस निमित्त के वर्धन (= बढ़ाने की विधि इस प्रकार है
उस भिक्षु को वह निमित्त उस प्रकार नहीं बढ़ाना चाहिये जैसे पात्र, पूआ, भात, लता, वस्त्र आदि को बढ़ाया जाता है, अपितु जैसे कृषक जोतने योग्य स्थान को हल से घेरकर (= सीमा बनाकर उसी सीमा के भीतर जोतता है; अथवा जैसे भिक्षु सीमानिर्धारण करते हुए पहले निमित्तों का विचार कर बाद में उसे बाँधता है; उसी प्रकार उसे यथाप्राप्त निमित्त को क्रमशः एक अङ्गुल, दो अङ्गुल, तीन अङ्गुल, चार अकुल मात्र मन द्वारा परिसीमित कर, उस सीमा के अनुसार बढ़ाना चाहिये; विना परिसीमित किये नहीं। तत्पश्चात् एक बालिश्त, एक हाथ, एक गलियारा, एक परिवे (= भवन), एक विहार की सीमा, एक ग्राम-निगम-जनपद-राज्य या समुद्र सीमा तक परिसीमित कर या समस्त ब्रह्माण्ड (=चक्रवाल) बैंक परिसीमित कर या उससे भी आगे परिसीमित कर बढ़ाना चाहिये ।
५०. जिस प्रकार हंसों के बच्चों को जब प निकलते हैं, तो थोड़ी थोड़ी दूर तक उड़ने का अभ्यास कर क्रमश: वे चन्द्र-सूर्य के पास तक चले जाने की शक्ति पा जाते हैं; इसी प्रकार भिक्षु यथाविधि निमित्त को परिसीमित कर बढ़ाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड की सीमा तक या उससे भी आगे बढ़ाता है। तब उसका वह निमित्त जिस भी स्थान में बढ़ाया गया है, उसमें वह पृथ्वी के ऊँचे-नीचे