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________________ २०८ विसुद्धिमग्ग दिट्ठधम्मसुखविहारानं, लाभी सतिसम्पजञस्स। तं किस्स हेतु? तथा हि सो, भिक्खवे, पण्डितो ब्यत्तो कुसलो भिक्खु सकस्स चित्तस्स निमित्तं उग्गण्हाती" (सं०-४-१२९) ति। ४७. निमित्तगहणेन चस्स पुन ते आकरे सम्पादयतो अप्पनामत्तमेव इज्झति, न चिरट्ठानं । चिरट्ठानं पन समाधिपरिपन्थानं धम्मानं सुविसोधितत्ता होति। यो हि भिक्खु कामादीनवपच्चवेक्खणादीहि कामच्छन्दं न सुटू विक्खम्भेत्वा, कायपस्सद्धिवसेन कायदुट्टल्लं न सुप्पटिपस्सद्धं कत्वा, आरम्भधातुमनसिकारादिवसेन थीनमिद्धं न सुट्ट पटिविनोदेत्वा, समथनिमित्तमनसिकारादिवसेन उद्धच्चकुक्कुच्वं न सुसमूहतं कत्वा, अओ पि समाधिपरिपन्थे धम्मे न सुट्ट विसोधेत्वा झानं समापज्जति, सो अविसोधितं आसयं पविट्ठभमरो विय अविसुद्धं उय्यानं पविट्ठराजा विय च खिप्पमेव निक्खमति। यो पन समाधिपरिपन्थे धम्मे सुट्ट विसोधेत्वा झानं समापज्जति, सो सुविसोधितं आसयं पविट्ठभमरो विय सुपरिसुद्धं उय्यानं पविट्ठराजा विय च सकलं पि दिवसभागं अन्तोसमापत्तियं येव होति। ४८. तेनाहु पोराणा "कामेसु छन्दं पटिघं विनोदये, उद्धच्चमिद्धं विचिकिच्छपञ्चमं । विवेकपामुज्जकरेन चेतसा राजा व सुद्धन्तगतो तहिं रमे" ति॥ तस्मा चिरद्वितिकामेन परिबन्धकधम्मे विसोधेत्वा झानं समापज्जितब्बं । भिक्षुओ, वह बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर भिक्षु इसी जन्म में सुखपूर्वक विहार एवं स्मृतिसम्प्रजन्य का लाभ करता है। वह किसलिये? क्योंकि, भिक्षुओ, वह बुद्धिमान्, अनुभवी, चतुर भिक्षु स्वकीय चित्त के निमित्त का ग्रहण करता है। ४७. निमित्त का ग्रहण करते हुए उन प्रकारों का प्रयोग करते हुए केवल अर्पणा ही सिद्ध होती है, ध्यान की चिरस्थिति (=देर तक बने रहना) नहीं।' चिरस्थिति तो ध्यान के बाधक धर्मों का सम्यक्तया विशोधन करने से ही होती है। जो भिक्षु काम-दोषों के प्रत्यवेक्षण आदि द्वारा कामच्छन्द को विना भली प्रकार नष्ट किये, कायप्रब्धि के द्वारा काया के दौष्ठुल्य (=विक्षोभ) को विना भलीभांति शान्त किये, आरम्भधातु के मनस्कार आदि द्वारा स्त्यान-मृद्ध को विना भलीभाँति दूर किये शमथ निमित्त के मनस्कार द्वारा औद्धत्य-कौकृत्य को विना पूर्णतः नष्ट किये, ध्यान के बाधक अन्य धर्मों को भी विना भलीभाँति दूर किये ध्यान प्राप्त करता है, वह अविशुद्ध (जिसके भीतर कोई रुकावट हो) बिल में प्रविष्ट मधुमक्खी के समान और अविशुद्ध उद्यान में प्रविष्ट राजा के समान शीघ्र ही ध्यान की अवस्था से बाहर आ जाता है। किन्तु जो ध्यान के बाधक धर्मों का भलीभाँति विशोधन कर ध्यान प्राप्त करता है, वह सुविशुद्ध बिल में घुसी मधुमक्खी के समान पूरे दिन भी ध्यान की समापत्ति (लाभ) में ही रहता है। ४८. इसीलिये प्राचीन विद्वानों ने कहा है "कामों में छन्द, प्रतिघ, औद्धत्य, मृद्ध एवं पाँचवीं विचिकित्सा को दूर करे, तथा विवेकी एवं प्रीति (-प्रमोद) से युक्त चित्त से युक्त होकर, अन्त तक स्वच्छ किये गये उद्यान में गये हुए राजा के समान वहीं रमता रहे।" अतः (ध्यान की) चिर स्थिति की कामना से, बाधक धर्मों का विशोधन कर ध्यान प्राप्त
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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