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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २०५ विसुद्धं चित्तं अज्झुपेक्खति नाम । समथभावूपगमनेन समथपटिपन्नस्स पुन समाधाने ब्यापारं अकरोन्तो समथपटिपन्नं अज्झपेक्खति नाम । समथपटिपन्नभावतो एव चस्स किलेससंसग्गं पहा एकत्तेन उपट्ठितस्स पुन एकत्तुपट्ठाने ब्यापारं अकरोन्तो एकत्तुपट्ठानं अज्जुपेक्खति नाम। एवं तत्रमज्झत्तुपेक्खाय किच्चवसेन उपेक्खानुब्रूहना वेदितब्बा । ४२. ये पनेते एवं उपेक्खानुब्रूहिते तत्थ जाता समाधिपञासङ्घाता युगनद्धधम्मा अञ्ञम अनतिवत्तमाना हुत्वा पवत्ता, यानि च सद्धादीनि इन्द्रियानि नानाकिलेसेहि विमुत्तत्ता विमुत्तिरसेन एकरसानि हुत्वा पवत्तानि, यं चेस तदुपगं तेसं अनतिवत्तनएकरसभावानं अनुच्छविकं वीरियं वाहयति, या चस्स तस्मि खणे पवत्ता आसेवना, सब्बे पि ते आकारा यस्मा ञाणेन सङ्किलेसवोदानेसु तं तं आदीनवं च आनिसंसं च दिस्वा तथा तथा सम्पहंसितत्ता विसोधितत्ता परियोदापितत्ता निप्फन्ना व । तस्मा "धम्मानं अनतिवत्तनादिभावसाधनेन परियोदापकस्स आणस्स किच्चनिप्पत्तिवसेन सम्पहंसना वेदितब्बा" ति वृत्तं । ४३. तत्थ यस्मा उपेक्खावसेन जाणं पाकटं होति । यथाह-"तथापग्गहितं चित्तं साधुकं अज्झपेक्खति, उपेक्खावसेन पञ्ञवसेन पञ्ञिन्द्रियं अधिमत्तं होति, उपेक्खावसेन नानत्तकिलेसेहि चित्तं विमुच्चति, विमोक्खवसेन पञ्ञवसेन पञ्ञिन्द्रियं अधिमत्तं होति । विमुत्तत्ता ते धम्मा एकरसा होन्ति । एकरसट्ठेन भावना..... ( खु०५-२६१ ) ति । तस्मा ञणकिच्चभूता सम्पहंसना परियोसानं ति वृत्ता । 11 जाने से, शुद्धि न करने वाले के बारे में कहा जाता है कि "विशुद्ध चित्त की उपेक्षा करता है । इसी प्रकार शमथ भाव की प्राप्ति हो चुकने के कारण शमथ में लगे हुए के द्वारा पुनः एकाग्रता की प्राप्ति का प्रयास न करने से कहा जाता है कि "शमथ में लगे हुए की उपेक्षा करता है।" शमथ में लगा हुआ होने से ही, क्लेश का संसर्ग छोड़कर एकाग्र अवस्था में होने से पुनः एकाग्रता ( = प्राप्ति) का प्रयास न करने के कारण कहा गया है कि “एकाग्रता की उपेक्षा करता है।" इस प्रकार उपेक्षा की वृद्धि को तत्रमध्यस्थता (=मध्यस्थ बने रहना) के कृत्य के रूप में जानना चाहिये। ४२. इस प्रकार उपेक्षा की वृद्धि होने पर जो वहाँ उत्पन्न हुए समाधि व प्रज्ञा नामक युगनद्ध (एक दूसरे से गूंथे हुए) धर्म एक दूसरे का अतिरेक न करते हुए प्रवृत्त हुए और जो श्रद्धा आदि इन्द्रियाँ नाना क्लेशों से विमुक्त होने के कारण विमुक्ति के रस से एकरस होती हुई प्रवृत्त हुईं एवं उसके अनुरूप वीर्य का निर्वाह हुआ जो कि उनके 'अनतिरेक' एवं 'एकरस' भावों=अवस्थाओं के अनुकूल है एवं जो उस क्षण में प्रवृत्त पुनरावृत्ति (आसेवन) है - वे सभी आकार, क्योंकि ज्ञान द्वारा संक्लेश और व्यवदान में क्रमशः उन उन दोषों और गुणों को देखते हुए वैसे वैसे प्रसन्न होने से, विशुद्ध होने से, परिशुद्ध होने से निष्पन्न (= पूर्ण) ही हैं, इसलिये कहा गया है कि प्रसन्नता को " धर्मों के अनतिरेक न करने आदि भावों के साधन से परिशुद्ध करने वाले ज्ञान के कृत्य की निष्पत्ति के रूप में जानना चाहिये।" ४३ . क्योंकि उपेक्षा के कारण ज्ञान प्रकट होता है, अतः ज्ञान के कृत्य के रूप में प्रसन्नता ध्यान का 'अन्त' कही गयी है। जैसा कि कहा गया है-"उस प्रकार प्रगृहीत (अच्छी तरह पकड़ कर रखे गये, वशीभूत) चित्त की पूर्णरूप से उपेक्षा करता है, उपेक्षा और प्रज्ञा के कारण प्रज्ञेन्द्रिय सबल होती है, उपेक्षा के कारण नाना प्रकार के क्लेशों से चित्त मुक्त होता है, विमोक्ष एवं प्रज्ञा के कारण प्रज्ञेन्द्रिय सबल होती है। विमुक्ति के कारण वे धर्म एकरस होते हैं। एकरस के अर्थ में भावना" यों, ज्ञान की कृत्यभूत सम्प्रहर्षणा ही 'अन्त' (पर्यवसान) कहलाती है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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