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________________ विसुद्धिमग्ग ४४. इदानि पठमं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं ति एत्थ गणनानुपुब्बता पठमं । पठमं उप्पन्नं ति पि पठमं । आरम्मणूपनिज्झानतो पच्चनीकझापनतो वा झानं । पथवीमण्डलं पन सकलट्ठेन पथवीकसिणं ति वुच्चति, तं निस्साय पटिलद्धनिमित्तं पि, पथवीकसिणनिमित्ते पटिलद्धझानं पि । तत्र इमस्मि अत्थे झानं पथवीकसिणं ति वेदितब्बं । तं सन्धाय - " पठमं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं" ति । २०६ चिरट्टितिसम्पादनं ४५. एवमधिगते पन एतस्मि तेन योगिना वालवेधिना विय सूदेन विय च आकारा परिग्गतब्बा । यथा हि सुकुसलो धनुग्गहो वालवेधाय कम्मं कुरुमानो यस्मि वारे वालं विज्झति, तस्मि वारे अक्कन्तपदानं च धनुदण्डस्स च जियाय च सरस्स च आकारं परिग्गणेहेय्य - " एवं मे ठितेन एवं धनुदण्डं एवं जियं एवं सरं गहेत्वा वालो विद्धो" ति, सो तो पट्टा तथैव ते आकारे सम्पादेन्तो अविराधेत्वा वालं विज्झेय्य; एवमेव योगिना पि "इमं नाम मे भोजनं भुञ्जित्वा एरूपं पुग्गलं सेवमानेन एवरूपे सेनासने इमिना नाम इरियापथेन इमस्मि काले इदं अधिगतं " ति एते भोजनसप्पायादयो आकारा परिग्गहेतब्बा । एवं हि सो नट्ठे वा तस्मि ते आकारे सम्पादेत्वा पुन उप्पादेतुं, अप्पगुणं वा पगुणं करोन्तो पुनप्नं अप्पेतुं सक्खिस्सति । ४६. यथा च कुसलो सूदो भत्तारं परिविसन्तो तस्स यं यं रुचिया भुञ्जति, तं तं ४४. अब, पठमं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं ("पृथ्वीकसिण को आलम्बन बनाने वाला प्रथम ध्यान प्राप्त होता है)- यहाँ गणना के क्रम (आनुपूर्वी) में होने से प्रथम ध्यान प्रथम कहा जाता है। पहले उत्पन्न होता है, इसलिये भी प्रथम है। आलम्बन का चिन्तन ( = उपनिज्झान) करने से या प्रतिकूल धर्मों को भस्म (= राख= झापन) कर देने से ध्यान है। पृथ्वीमण्डल को ही 'समस्त' के अर्थ में पृथ्वीकसिण ( = कसिण = कृत्स्र = समस्त ) कहते हैं, उसके आश्रय से प्राप्त निमित्त को भी तथा पृथ्वीकसिणनिमित्त में प्राप्त ध्यान को भी । इसी अर्थ में - पृथ्वीकसिण ध्यान है - ऐसा जानना चाहिये। उसी को लेकर कहा गया है"पृथ्वीकसिण के रूप में प्रथम ध्यान प्राप्त होता है।" चिरस्थितिसम्पादन ४५. यों, इस (ध्यान) के प्राप्त होने पर, योगी को बालवेधी (बाण से बाल =केश को खण्डखण्ड कर देने वाले धनुर्धर) के समान और रसोइये (= पाचक) के समान इसकी प्राप्ति के आकारों (= प्रकारों) पर भलीभाँति विचार करना चाहिये। जिस प्रकार किसी अतिचतुर धनुर्धर को चाहिये कि बाल-वेधन कर्म करते समय, जिस वार वह बाल को बेधने में सफल होता है, उस वार अपने पैरों की स्थिति, धनुर्दण्ड, प्रत्यञ्चा, बाण के आकार पर भलीभाँति विचार करे - "मेरे द्वारा इस प्रकार खड़े रहने पर ऐसे धनुर्दण्ड, ऐसी प्रत्यञ्चा, ऐसे बाण को ग्रहण करने पर यह बाल बेधा गया।" जिससे कि उसके बाद भी वह उन्हीं आकारों का प्रयोग करते हुए बारम्बार निश्चित रूप से बाल को बेध सके; इसी प्रकार योगी को भी "मुझे यह भोजन करने पर, इस प्रकार के पुद्गल का साथ करने पर, इस प्रकार के शयनासन में, इस ईर्यापथ से, इस कालविशेष में यह ध्यान प्राप्त हुआ" - इस प्रकार भोजन की अनुकूलता आदि आकारों पर भली-भाँति विचार करना चाहिये। ऐसा होने पर, यदि वह ध्यान नष्ट भी हो जाय, तो साधक उन आकारों का प्रयोग कर पुनः उत्पन्न करने में, उसका अभ्यास करते समय पुनः पुनः प्राप्त करने में सफल हो सकेगा ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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