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विसुद्धिमग्ग "पठमस्स झानस्स सम्पहंसना परियोसानं। परियोसानस्स कति लक्खणानि? परियोसानस्स चत्तारि लक्खणानि-तत्थ जातानं धम्मानं अनतिवत्तटेन सम्पहसना, इन्द्रियानं एकरसतुन सम्पहंसना, तदुपगविरियवाहनतुन सम्पहंसना, आसेवनटेन सम्पहंसना । पठमस्स झानस्स सम्पहंसना परियोसानं, परियोसानस्स इमानि चत्तारि लक्खणानि । तेन वुच्चतिपठमं झानं परियोसानकल्याणं चेव होति चतुलक्खणसम्पन्नं चा" (खु०५-१९६) ति।
३९. तत्र पटिपदाविसुद्धि नाम ससम्भारिको उपचारो। उपेक्खानुबूहना नाम अप्पना। सम्पहंसना नाम पच्चवेक्खणा ति एवमेके वण्णयन्ति। यस्मा पन "एकत्तगतं चित्तं पटिपदाविसुद्धिपक्खन्दं चेव होति उपेक्खानुब्रूहितं च आणेन च सम्पहंसितं" (खु० ५-१९५) ति पाळियं वुत्तं, तस्मा अन्तोअप्पनायमेव आगमनवसेन पटिपदाविसुद्धि, तत्रमज्झत्तुपेक्खाय किच्चवसेन उपेक्खानुब्रूहना, धम्मानं अनतिवत्तनादिभावसाधनेन परियोदापकस्स ाणस्स किच्चनिप्फतिवसेन सम्पहंसना च वेदितब्बा।
४०. कथं? यस्मि हि वारे अप्पना उप्पज्जति, तस्मि यो नीवरणसङ्क्षातो किलेसगणो तस्स झानस्स परिपन्थो, ततो चित्तं विसुज्झति। विसुद्धत्ता आवरणविरहितं हुत्वा मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति। मज्झिमं समथनिमित्तं नाम समप्पवत्तो अप्पनासमाधि येव। तदनन्तरं पन पुरिमचित्तं एकसन्ततिपरिणामनयेन तथत्तं उपगच्छमानं मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति नाम, एवं पटिपन्नत्ता तथत्तमुपगमनेन तत्थ पक्खन्दति नाम। एवं ताव पुरिमचित्ते विज्जमानाकारनिप्फादिको पठमस्स झानस्स उप्पादक्खणे येव आगमनवसेन पटिपदाविसुद्धि वेदितब्बा।
४१. एवं विसुद्धस्स पन तस्स पुन विसोधेतब्बाभावतो विसोधने ब्यापारं अकरोन्तो
"प्रथम ध्यान का अन्त (=पर्यवसान) प्रसन्नता है। इस 'अन्त' के कितने लक्षण हैं? अन्त के चार लक्षण हैं- उस (अवस्था) में (१) उत्पन्न धर्मों का अतिरेक नहीं हुआ-इस अर्थ में (अथवा इसलिये) प्रसन्नता होती है। (२) 'इन्द्रियाँ एकरस हैं'-इस अर्थ में प्रसन्नता होती है। (३) 'उपयुक्त उद्योग का निर्वाह हुआ'-इस अर्थ में प्रसन्नता होती है। इस प्रकार प्रथम ध्यान का अन्त प्रसन्नता (सम्प्रहर्षण) है। एवं (४) आसेवन (आवृत्ति) के अर्थ में प्रसन्नता होती है। यों 'अन्त' के ये चार लक्षण हैं। इसीलिये कहा गया है-प्रथम ध्यान अन्त में कल्याणकर एवं चार लक्षणों से युक्त होता है"।
३९. उनमें पटिपदाविसुद्धि आदि पदों में, प्रतिपदा' सम्भार के साथ उपचार है। उपेक्षा की वृद्धि अर्पणा है। किसी किसी का मत है कि 'प्रसन्नता प्रत्यवेक्षण है; किन्तु क्योंकि "एकाग्र चित्त मार्गविशुद्धि में प्रसन्नता का अनुभव करता है, उपेक्षा में वृद्धि, धर्मों के अनतिरेक आदि भावों के निर्वाह द्वारा परिशुद्ध करने वाले ज्ञान के कृत्य की पूर्ति (=निष्पत्ति) के रूप में प्रसन्नता को जानना चाहिये।
४०. कैसे? जिस वार (चित्तसन्तति) में अर्पणा उत्पन्न होती है, उसमें जो 'नीवरण' नामक क्लेशों का समूह उस ध्यान का बाधक (विरोधी) होता है, उससे चित्त नीवरणरहित होकर विशुद्ध हो जाता है। स्वयं अर्पणा समाधि ही 'शमथनिमित्त' के नाम से जानी जाती है। तत्पश्चात् उसके पूर्ववर्ती चित्त के एक चित्तसन्तति में परिणाम करने की विधि के अनुसार उस स्थिति तक पहुंचने से कहा जाता है कि मध्यम शमथनिमित्त में लगता है एवं यह भी कहा जाता है कि वहाँ पहुँचने से प्रसन्नता का अनुभव करता है। अतएव इस मार्ग-विशुद्धि को पूर्ववर्ती चित्त में विद्यमान आकार की उत्पत्ति (=निष्पादन) करने वाली, प्रथम ध्यान के उत्पादक्षण में ही आने वाली के रूप में जानना चाहिये। .
४१. इस प्रकार, उस विशुद्ध हुए चित्त की शुद्धि करने की अब कोई आवश्यकता न रह