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४. पथवीकसिणनिद्देस
तिविधकल्याणं
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३८. तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं ति । एत्थ पन आदिमज्झपरियोसानवसेन तिविधकल्याणता । तेसं येव च आदिमज्झपरियोसानानं लक्खणवसेन दसलक्खणसम्पन्नता वेदितब्बा |
तत्रायं पालि
" पठमस्स झानस्स पटिपदाविसुद्धि आदि, उपेक्खानुब्रूहना मज्झे, सम्पहंसना परियोसानं । पठमस्स झानस्स पटिपदाविसुद्धि आदि, आदिस्स कति लक्खणानि ? आदिस्स तीणि लक्खणानि - यो तस्स परिपन्थो ततो चित्तं विसुज्झति, विसुद्धत्ता चित्तं मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति, पटिपन्नत्ता तत्थ चित्तं पक्खन्दति । यं च परिपन्थतो चित्तं विसुज्झति, यं च विसुद्धत्ता चित्तं मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति, यं च पटिपन्नत्ता तत्थ चित्तं पक्खन्दति। पठमस्स झानस्स पटिपदाविसुद्धि आदि, आदिस्स इमानि तीणि लक्खणानि । तेन वुच्चति - पठमं झानं आदिकल्याणं चेव होति तिलक्खणसम्पन्नं च ।
"पठमस्स झानस्स उपेक्खानुब्रूहना मज्झे, मज्झस्स कति लक्खणानि ? मज्झस्स तीणि लक्खणानि - विसुद्धं चित्तं अज्जुपेक्खति, समथपटिपन्नं अज्झपेक्खति, एकत्तुपट्ठानं अपेक्खति । यं च विसुद्धं चित्तं अज्जुपेक्खति, यं च समथपटिपन्नं अज्झपेक्खति, यं च एकत्तुपठ्ठानं अज्झपेक्खति । पठमस्स झानस्स उपेक्खानुब्रूहना मज्झे, मज्झस्स इमानि ती लक्खणानि । तेन वुच्चति - पठमं झानं मज्झेकल्याणं चेव होति तिलक्खणसम्पन्नं च (अभि० २-३०९) इस प्रकार कथित होने से वह एकाग्रता ध्यान का अङ्ग ही है। जिस अभिप्राय से भगवान् ने ऐसा कहा, उसी को उन्होंने विभङ्ग में प्रकाशित किया है।
त्रिविध कल्याण
३८. त्रिविधकल्याणं दसलक्खणं (तीन प्रकार से कल्याणकर, दस लक्षणों से युक्त ) - इनमें तीन प्रकार से कल्याणकर होना आरम्भ, मध्य और अन्त के अनुसार है। उन्हीं आरम्भ, मध्य और अन्त को, लक्षणों के अनुसार, दस लक्षणों से युक्त जानना चाहिये। इस सन्दर्भ में यह पालि है"प्रथम ध्यान का आरम्भ मार्ग ( = प्रतिपदा) विशुद्धि, मध्य में उपेक्षा की वृद्धि एवं प्रसन्नता (=सम्प्रहर्षण) अन्त है। प्रथम ध्यान का आरम्भ मार्गविशुद्धि है। इस 'आरम्भ' के कितने लक्षण है? आरम्भ के तीन लक्षण हैं- १. जो उस (ध्यान) के बाधक हैं, उनसे चित्त विशुद्ध (विमुक्त) होता है, विशुद्ध होने से चित्त मध्यम (=बीच में आने वाले) शमथ - निमित्त में लगता है, लगने से चित्त वहाँ हर्ष का अनुभव करता है; २ और बाधाओं सें चित्त विशुद्ध होता है, विशुद्ध होने से चित्त मध्यम शमथनिमित्त में लगा रहता है और लगने से उसमें चित्त प्रसन्न होता है; ३. प्रथम ध्यान का आरम्भ मार्गविशुद्धि है । 'आरम्भ के ये तीन लक्षण हैं। इसीलिये कहा गया - 'प्रथम ध्यान आरम्भ में कल्याणकर एवं तीन लक्षणों से युक्त होता है।'
“प्रथम ध्यान के मध्य में उपेक्षा की वृद्धि होती है। इस 'मध्य' के कितने लक्षण हैं? मध्य के तीन लक्षण हैं - १. भिक्षु विशुद्ध चित्त की उपेक्षा करता है (क्योंकि चित्त को विशुद्ध करने के प्रयास की अब आवश्यकता नहीं रही), शमथ में लगे हुए की उपेक्षा करता है, एकाग्रता की उपेक्षा करता है । एवं २ वह भिक्षु विशुद्ध चित्त की उपेक्षा करता है, शमथ में लगे हुए की उपेक्षा करता है, एकाग्र अवस्था की उपेक्षा करता है; ३. प्रथम ध्यान के मध्य में उपेक्षा की वृद्धि है। मध्य के ये तीन लक्षण हैं: इसीलिये कहा गया है- "प्रथम ध्यान मध्य में कल्याणकर एवं तीन लक्षणों से युक्त होता है।'