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विसुद्धिमग्ग अनुग्गहिता एकग्गता एकत्तारम्मणे समं सम्मा च आधियति, तस्मा वितको विचारो पीति सुखं चित्तेकग्गता ति इमेसं पञ्चनं उप्पत्तिवसेन पञ्चङ्गसमन्नागतता वेदितब्बा।
उप्पन्नेसु हि एतेसु पञ्चसुझानं उप्पन्नं नाम होति। तेनस्स एतानि पञ्च समन्नागतङ्गानी ति वुच्चन्ति। तस्मा न एतेहि समन्नागतं अञदेव झानं नाम अत्थी ति गहेतब्बं । यथा पन अङ्गमत्तवसेनेव चतुरङ्गिनी सेना, पञ्चङ्गिकं तुरियं, अट्ठङ्गिको च मग्गो ति वुच्चति, एवमिदं पि अङ्गमत्तवसेनेव पञ्चङ्गिकं ति वा पञ्चङ्गसमन्नागतं ति वा वुच्चती ति वेदितब्बं ।
३७. एतानि च पञ्चङ्गानि किञ्चापि उपचारक्खणे पि अस्थि, अथ खो उपचारे पकतिचित्ततो बलवतरानि। इध पन उपचारतो पि बलवतरानि रूपावचरलक्खणप्पत्तानि। एत्थ हि वितको सुविसदेन आकारेन आरम्मणे चित्तं अभिनिरोपयमानो उप्पज्जति। विचारो अतिविय आरम्मणं अनुमज्जमानो। पीतिसुखं सब्बावन्तं पि कायं फरमानं । तेनेवाह"नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होती" (दी०१-६५) ति। चित्तेकग्गता पि हेट्ठिमम्हि समुग्गपटले उपरिमं समुग्गपटलं विय आरम्मणेसु फुसिता हुत्वा उप्पज्जति-अयमेतेसं इतरेहि विसेसो।
तत्थ चित्तेकग्गता किञ्चापि सवितकं सविचारं ति इमस्मि पाठे न निद्दिवा, तथापि विभङ्गे-"झानं ति वितको विचारो पीति सुखं चित्तस्सेकगग्ता" (अभि० २-३०९) ति एवं वुत्तत्ता अङ्गमेव। येन हि अधिप्पायेन भगवता उद्देसो कतो, सो येव तेन विभड़े पकासितो ति। (प्रयोग-सम्पत्ति) से उत्पन्न प्रीति प्रसन्न (प्रीणन) करती है एवं सुख वृद्धि (उपब्रूहन) करता है। तब शेष सम्प्रयुक्त धर्मों के साथ इस चित्त को इन अभिनिरूपण (=लगाना), अनुप्रबन्धन (बाँधना) प्रीणन, उपब्रहण द्वारा अनुगृहीत (=सहायताप्राप्त) एकाग्रता एक आलम्बन में, समान एवं सम्यक् रूप से टिकती है। अतः १. वितर्क, २. विचार, ३. प्रीति, ४. सुख और ५. एकाग्रता-इन पाँचों की उत्पत्ति के कारण ध्यान की पञ्चाङ्गयुक्तता कही गयी है।
जब ये पाँचों उत्पन्न होते हैं, तभी कहा जाता है कि ध्यान उत्पन्न हुआ। इसलिये ये पाँचों 'समन्वागत (=युक्त) अङ्ग कहे जाते हैं। अतः यह नहीं समझना चाहिये कि ध्यान कुछ भिन्न है जो इनसे समन्वागत होता है; अपितु जिस प्रकार चतुरङ्गिणी सेना, पञ्चाङ्गिक तूर्य (वाद्य), अष्टाङ्गिक मार्ग आदि शब्दों की तरह केवल अङ्गों के अनुसार इसे पञ्चाङ्गिक या पञ्चाङ्गसमन्वागत कहा जाता है-ऐसा जानना चाहिये।
३७. और ये पाँचों अङ्ग यद्यपि उपचार के क्षण में भी होते हैं और उपचार में वे साधारण चित्त की अपेक्षा सबलतर होते हैं; किन्तु यहाँ प्रथम ध्यान में उपचार से भी सबलतर एवं रूपावचर के लक्षणों को प्राप्त किये हुए होते हैं। इनमें वितर्क चित्त को आलम्बन में विस्तृत रूप से लगाता हुआ उत्पन्न होता है; विचार आलम्बन का अत्यधिक मार्जन करते हुए, प्रीति-सुख शरीर को व्याप्त करते हुए । इसलिये कहा गया है-"उस भिक्षु के शरीर का कोई भी भाग विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख से अव्याप्त नहीं होता।" चित्त की एकाग्रता भी सन्दूक के निचले भाग पर सन्दूक के ऊपरी भाग ढक्कन के समान आलम्बन को पूरी तरह स्पर्श करती हुई उत्पन्न होती है। अन्यों से यह इसका भेद है।
इनमें, यद्यपि चित्त की एकाग्रता का उल्लेख 'सवितर्क सविचार' इस प्रकार प्रारम्भ होने वाले पाठ में नहीं किया गया है, तथापि विमङ्ग में-"(प्रथम) ध्यान : वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता"