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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २०१ भावस्स इरियं वृत्तिं पालनं यपनं यापनं चारं विहारं अभिनिप्फादेति । वृत्तं तं विभङ्गे" विहरती ति इरियति वत्तति पालेति यपेति यापेति चरति विहरति, तेन वुच्चति विहरती" ( अभि०२ - ३०३ ) ति । पञ्चङ्गविप्पहीनादीनमत्थो ३५. यं पन वुत्तं "पञ्चङ्गविप्पहीनं पञ्चङ्गसमन्नागतं ति । तत्थ १. कामच्छन्दो, २. ब्यापादो, ३. थीनमिद्धं ४. उद्धच्चकुक्कुच्चं, ५. विचिकिच्छा ति इमेसं पञ्चन्नं नीवरणानं पहानवसेन पञ्चङ्गविप्पहीनता वेदितब्बा । न हि एतेसु अप्पहीनेसु झानं उप्पज्जति । तेनस्सेतानि पहानङ्गानी ति वुच्चन्ति । किञ्चापि हि ज्ञानक्खणे अञ्जे पि अकुसला धम्मा पहीयन्ति, तथापि एतानेव विसेसेन झानन्तरायकरानि । कामच्छन्देन हि नानाविसयप्पलोभितं चित्तं न एकत्तारम्मणे समाधियति । कामच्छन्दाभिभूतं वा तं न कामधातुप्पहानाय पटिपदं पटिपज्जति । ब्यापादेन चारम्मणे पटिहञ्जमानं न निरन्तरं पवत्तति । थीनमिद्धाभिभूतं अकम्मञ्चं होति । उद्धच्चकुक्कुच्चपरेतं अवूपसन्तमेव हुत्वा परिब्भमति । विचिकिच्छाय उपहतं झानाधिगमसाधिकं पटिपदं नारोहति । इति विसेसेन झानन्तरायकरत्ता एतानेव पहानङ्गानी ति वुत्तानी ति । ३६. यस्मा पन वितक्को आरम्मणे चित्तं अभिनिरोपेति, विचारो अनुप्पबन्धति, तेहि अविक्खेपाय सम्पादितपयोगस्स चेतसो पयोगसम्पत्तिसम्भवा पीति पीणनं, सुखं च उपब्रूहनं करोति । अथ नं ससेससम्पयुत्तधम्मं एतेहि अभिनिरोपनानुप्पबन्धपीणनउपब्रूहनेहि के अनुसार रहना), यापन, चर्या विहार का निष्पादन करता है। विभङ्ग में कहा गया है-"विहार करता है अर्थात् क्रिया करता है, वर्तता है, पालन करता है, यपन करता है, यापन करता है, चर्या करता है, विहार करता है - इसलिये कहते हैं कि विहार करता है" (अभि० २,३०२ ) 'पञ्चाङ्गविप्रहीण' आदि शब्दों का अर्थ ३५. जो पीछे (पृ० १९२ में) कहा है कि पञ्चविप्पहीनं पञ्चङ्गसमन्नागतं (पाँच अङ्ग रहित, पाँच अङ्गों से युक्त) - उनमें १. कामच्छन्द, २. व्यापाद, ३. स्त्यानमृद्ध, ४. औद्धत्य - कौकृत्य, ५. विचिकित्सा-इन पाँच नीवरणों के प्रहाण को पञ्चाङ्गरहित होना चाहिये। इनका प्रहाण किये विना ध्यान उत्पन्न नहीं होता, इसलिये ये 'प्रहाणाङ्ग' कहे जाते हैं। यद्यपि ध्यान के क्षण में अकुशल धर्मों का भी प्रहाण होता है, तथापि ये पूर्वोक्त कामच्छन्द आदि ही विशेष रूप से ध्यान के बाधक हैं। कामच्छन्द के कारण नाना विषयों में लुब्ध चित्त एक आलम्बन में एकाग्र नहीं होता । अथवा कामच्छन्द के वशीभूत वह चित्त. कामधातु के प्रहाण करने वाले मार्ग पर नहीं चल पाता। व्यापाद द्वारा प्रताड़ित चित्त आलम्बन के प्रति निरन्तर प्रवृत्त नहीं हो पाता । स्त्यान-मृद्ध के वशीभूत चित्त अकमर्ण्य होता है। औद्धत्य - कौकृत्य द्वारा ग्रस्त चित्त अशान्त होकर भटकता रहता है। विचिकित्सा द्वारा उपहत चित्त ध्यान -लाभकारक मार्ग पर आरूढ़ नहीं होता। यों, इन सभी में विशेष रूप से ध्यान की बाधकता होने से इन्हें ही 'प्रहाणाङ्ग' कहा जाता है। ३६. क्योंकि वितर्क आलम्बन की ओर चित्त को प्रवृत्त करता है, विचार आलम्बन में चित्त को बाँधता है, उनके द्वारा बाधा उत्पन्न न हो ऐसा उद्योग करने वाले चित्त में उद्योग की सफलता
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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