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________________ विसुद्धिमग्ग सातलक्खणं, सम्पयुत्तानं उपब्रूहनरसं, अनुग्गहपच्चुपट्ठानं । सति पि च नेसं कथचि अविप्पयोगे इट्ठारम्मणपटिलाभतुट्ठि पीति । पटिलद्धस्सानुभवनं सुखं । यत्थ पीति, तत्थ सुखं । यत्थ सुखं, तत्थ न नियमतो पीति । सङ्घारक्खन्धसङ्गहिता पीति, वेदनाक्खन्धसङ्गहितं सुखं । कन्तारखिन्नस्स वनन्तुदकदस्सनसवनेसु विय पीति, वनच्छायापवेसनउदकपरिभोगेसु वि सुखं । तस्मि तस्मि समये पाकटभावतो चेतं वुत्तं ति वेदितब्बं । इति अयं च पीति इदं च सुखं अस्स झानस्स, अस्मि वा झाने अत्थी ति इदं झानं पीतिसुखं ति वुच्चति । ३३. अथ वा पीति च सुखं च पीतिसुखं, धम्मविनयादयो विय। विवेकजं पीतिसुखमस्स झानस्स, अस्मि वा झाने अत्थी ति एवं पि विवेकजं पीतिसुखं । यथेव हि ज्ञानं, एवं पीतिसुखं पेत्थ विवेकजमेव होति । ते चस्स अत्थि, तस्मा एकपदेनेव "विवेकजं पीतिसुखं" ति पि वृत्तं युज्जति । विभङ्गे पन " इदं सुखं इमाय पीतिया सहगतं" (अभि० २- ३०९) ति आदिना नयेन वृत्तं । अत्थो पन तत्थापि एवमेव दट्ठब्बो । ३४. पठमं झानं ति । इदं परतो आविभविस्सति । उपसम्पज्जा ति। उपगन्त्वा, पापुणित्वा ति वृत्तं होति । उपसम्पादयित्वा वा, निप्फादेत्वा ति वुत्तं होति । विभङ्गे पन 'उपसम्पज्जा ति पठमस्स झानस्स लाभो पटिलाभो पत्ति सम्पत्ति फुसना सच्छिकिरिया उपसम्पदा" (अभि० २ - ३०२ ) ति वृत्तं । तस्सा पि एवमेव अत्थो दट्ठब्बो । २०० ". विहरतीति । तदनुरूपेन इरियापथविहारेन इतिवृत्तप्पकारझानसमङ्गी हुत्वा अत्तदुःख) को अच्छी तरह खाता है या खनता है, इसलिये सुख है। उसका लक्षण शीतल होना है। सम्प्रयुक्तों को बढ़ाना इसका रस है । अनुग्रह इसका प्रत्युपस्थान है। यद्यपि कहीं-कहीं वे प्रीति और सुख पृथक नहीं रहते, तथापि इष्ट आलम्बन के प्रतिलाभ से उत्पन्न सन्तुष्टि प्रीति है, प्रतिलब्ध ( प्राप्त) का अनुभव सुख है। जहाँ प्रीति है, वहाँ सुख है; किन्तु जहाँ सुख है, वहाँ प्रीति का होना आवश्यक नहीं है। प्रीति संस्कारस्कन्ध में संगृहीत है; और सुख वेदनास्कन्ध में । कान्तार ( = गहन वन) में व्याकुल पथिक द्वारा वन में जल को देखने या उसके विषय में सुनने के समान प्रीति है, और सुख है वन में छाया के सेवन और जल के उपभोग के समान। उन-उन समयों में उनकी स्पष्टता होने के कारण यह कहा गया है - ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार इस ध्यान की यह प्रीति है, यह सुख है, अथवा ध्यान में यह है, अतः इस ध्यान को प्रीति-सुख वाला कहा जाता है। ३३. अथवा, धर्मविनय आदि के समान समस्त पद समझिये प्रीति और सुख = प्रीतिसुख । इस प्रकार परस्पर स्वतन्त्र पदों के रूप में विवेक से उत्पन्न प्रीतिसुख इस ध्यान का है, या इस ध्यान में है, इसलिये भी प्रीतिसुखविवेकज है। जिस प्रकार ध्यान है, उसी प्रकार प्रीतिसुख भी यहाँ प्रस्तुत प्रसङ्ग में विवेकज ही होता है। और वह विवेकज प्रीतिसुख इस ध्यान का है, इसलिये एक पद के द्वारा ही 'विवेकज प्रीतिसुख' इस प्रकार भी कहा जा सकता है। विभङ्ग में जो "इस सुख व इस प्रीति के साथ' आदि प्रकार से कहा गया है, वहाँ भी उसका अर्थ इसी प्रकार समझना चाहिये । ३४. प्रथम ध्यान- इसका स्पष्टीकरण आगे ( द्र० - पृ० २०६, ४४ पै० ) किया जायगा । 'उपसम्पज्ज'- (उपसम्पन्न होकर ) पास जाकर प्राप्त कर । अथवा सम्पादित कर, निष्पादित कर । विभन्न में कहा गया है- "उपसम्पद्य का अर्थ है प्रथम ध्यान का लाभ, प्राप्ति, स्पर्श, साक्षात्कार व उपसम्पदा" (अभि० २ ३०२ ) । उसका भी यही अर्थ समझना चाहिये । विहरति (विहार करता है) - उसके अनुरूप ईर्यापथ में विहार द्वारा उक्त प्रकार के ध्यान से युक्त होकर, अपनी खड़े होने बैठने आदि की क्रिया (= ईर्या) वृत्ति, पालन, यपन (उन-उन ईर्य्यापथों
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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