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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १९५ कामच्छन्दो" (अभि०२-३०८)ति आदिना नयेन विभते उपरि झानङ्गानं पच्चनीकपटिपक्खभावदस्सनतो नीवरणानेव वुत्तानि। नीवरणानि हि झानङ्गपच्चनीकानि, तेसंझानङ्गानेव पटिपक्खानि, विद्धंसकानि विघातकानी ति वुत्तं होति। तथा हि "समाधि कामच्छन्दस्स पटिपक्खो, पीति ब्यापादस्स, वितको थीनमिद्धस्स, सुखं उद्धच्चकुक्कुच्चस्स, विचारो विचिकिच्छाया" ति पेटके वुत्तं। एवमेत्थ "विविच्चेव कामेही" ति इमिना कामच्छन्दस्स विक्खम्भनविवेको वुत्तो होति। विविच्च अकुसलेहि धम्मेही ति इमिना पञ्चन्नं पि नीवरणानं, अगहितग्गहणेन पन पठमेन कामच्छन्दस्स, दुतियेन सेसनीवरणानं । तथा पठमेन तीसु अकुसलमूलेसु पञ्चकामगुणभेदविसयस्स लोभस्स, दुतियेन आघातवत्थुभेदादिविसयानं दोसमोहानं। ओघादीसु वा धम्मेसु पठमेन कामोघकामयोगकामासवकामुपादानअभिज्झाकायगन्थकामरागसंयोजनानं, दुतियेन अवसेसओघ-योगासव-उपादान-गन्थ-संयोजनानं । पठमेन च तण्हाय तंसम्पयुत्तकानं च, दुतियेन अविजाय तंसम्पयुत्तकानं च । अपि च, पठमेन लाभसम्पयुत्तानं अट्ठन्नं चित्तुप्पादानं, दुतियेन सेसानं चतुन्नं अकुसलचित्तुप्पादानं विक्खम्भनविवेको वुत्तो होती ति वेदितब्बो। अयं ताव "विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेही" ति एत्थ अत्यल्पकासना। . २७. एत्तावता च पठमस्स झानस्स पहानङ्गं दस्सेत्वा इदानि सम्पयोगङ्गं दस्सेतुं सवितकं सविचारं ति आदि वुत्तं । तत्थ वितकनं वितको, ऊहनं ति वुत्तं होति। स्वायं कामच्छन्द" (अभि० २, ३०८) आदि प्रकार से विभा में बाद के ध्यानाङ्गों से उनकी विपरीतता, प्रतिपक्षभाव, प्रदर्शित करने के लिये केवल नीवरण ही कहे गये हैं। नीवरण ध्यानाङ्गों के विपरीत हैं, ध्यानाङ्ग ही उनके प्रतिपक्ष हैं, विध्वंसक है, विघातक है ऐसा कहा गया है। वैसे ही-"समाधि कामच्छन्द का प्रतिपक्ष है, प्रीति व्यापाद (=बुरी इच्छा) की, वितर्क स्त्यान-मृद्ध का, सुख औद्धत्यकौकृत्य का, विचार विचिकित्सा का प्रतिपक्ष"-इस प्रकार पेटक (=महाकच्चान द्वारा देशित पिटकों की संवर्णना) में कहा गया है। इस प्रकार यहाँ-"कामों से विरहित होकर"-इससे कामच्छन्द का विष्कम्भण-विवेक बतलाया गया है। और "अकुशल धर्मों से विरहित होकर" इससे पाँचों नीवरणों का भी। किन्तु पुनरावृत्ति न करने पर, प्रथम के द्वारा कामच्छन्द का, द्वितीय द्वारा शेष नीवरणों का एवं प्रथम द्वारा तीन अकुशलमूलों में 'पञ्च कामगुण' भेद वाले विषय के लोभ का, द्वितीय द्वारा आघातवस्तु के भेद आदि विषयों वाले (आघात के लिये विभिन्न परिस्थितियाँ ही जिनके क्षेत्र हैं, ऐसे) दोष एवं मोह का। अथवा प्रथम द्वारा ओघ आदि धर्मों में से काम-ओघ, काम-योग, काम-आस्रव, काम-उत्पादन, अभिध्या (=विषयगत लोभ), काम-ग्रन्थ और काम-राग संयोजनों का; द्वितीय द्वारा शेष ओघ, योग, आस्रव, उपादान, ग्रन्थ और संयोजन का । एवं प्रथम द्वारा तृष्णा का एवं उससे सम्प्रयुक्तों का, द्वितीय से अविद्या का और उससे सम्प्रयुक्तों का । और वैसे ही-प्रथम द्वारा लोभसम्प्रयुक्त आठ चित्तोत्पादों का, द्वितीय द्वारा शेष चार अकुशल चित्तोत्पादों का "विष्कम्भणविवेक' कहा गया है-ऐसा तात्पर्य समझना चाहिये। यह-"कामों से विरहित होकर ही, अकुशल धर्मों से विरहित होकर" की व्याख्या (अर्थ प्रकाशन) है। २७. यहाँ तक प्रथम ध्यान के द्वारा प्रहाण ( त्याग) दिये गये अङ्गों को प्रदर्शित कर अब
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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