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विसुद्धिमग्ग आरम्मणे चित्तस्स अभिनिरोपनलक्खणो, आहननपरियाहननरसो। तथा हि तेन योगावचरो आरम्मणं वितकाहतं वितकपरियाहतं करोती ति वुच्चति, आरम्मणे चित्तस्स आनयनपच्चुपट्ठानो।
विचरणं विचारो, अनुसञ्चरणं ति वुत्तं होति। स्वायं आरम्मणानुमज्जनलक्खणो,तत्थ सहजातानुयोजनरसो, चित्तस्स अनुप्पबन्धनपच्चुपट्ठानो। '
सन्ते पि च नेसं कत्थचि अविप्पयोगे, ओळारिकद्वेन पुब्बङ्गमद्वेन च घण्टाभिघातो विय चेतसो पठमाभिनिपातो वितको। सुखुमटेन अनुमजनसभावेन च घण्टानुरवो विय अनुप्पबन्धो विचारो। विप्फारवा चेत्थ वितको पठमुप्पत्तिकाले परिप्फन्दनभूतो चित्तस्स, आकासे उप्पतितुकामस्स पक्खिनो पक्खविखेपो विय, पदुमाभिमुखपातो विय च गन्धानुबन्धचेतसो भमरस्स। सन्तवुत्ति विचारो नातिपरिफन्दनभावो चित्तस्स, आकासे उप्पतितस्स पक्खिनो पक्खप्पसारणं विय, परिब्भमनं विय च पदुमाभिमुखपतितस्स भमरस्स पदुमस्स उपरिभागं।
दुकनिपातकथायं पन "अकासे गच्छतो महासकणस्स उभोहि पक्खेहि वातं गहेत्वा पक्खे सन्निसीदापेत्वा गमनं विय आरम्मणं चेतसो अभिनिरोपनभावेन पवत्तो वितको। वातग्गहणत्थं पक्खे फन्दापयमानस्स गमनं विय अनुमज्जनभावेन पवत्तो विचारो" ( )ति वुत्तं, तं अनुप्पबन्धेन पवत्तियं युज्जति। सो पन नेसं विसेसो पठमदुतियज्झानेसु पाकटो होति। 'सम्प्रयोग' (=ध्यान के साथ सम्प्रयुक्त होने वाले) अङ्गों को प्रदर्शित करने के लिये “सवितर्क सविचार" आदि कहा गया है। उनमें, विशेष रूप से तर्क, ऊहन करना, 'वितर्क है। इसका लक्षण अपने आलम्बन में चित्त को प्रवृत्त करना है, इसका रस (=कार्य) प्रहाण करना, निरन्तर प्रहाण करना है। यों वह साधक आलम्बन को वितहित कर डालता है-ऐसा कहा जाता है। आलम्बन में चित्त को ले आना इसका प्रत्युपस्थान है।
आलम्बन में विचरण करना, निरन्तर विचरण करना 'विचार' है। अपने आलम्बन का अनुमज्जन (मर्दन, रगड़ना)-इसका लक्षण है, उसमें सहजात धर्मों को लगाये रखना-इसका रस है, आलम्बन के साथ चित्त को बाँधे रखना-इसका प्रत्युपस्थान है।
और यद्यपि कहीं-कहीं वे परस्पर पृथक् रूप में नहीं पाये जाते, तथापि वितर्क आलम्बन के प्रति चित्त का प्रथम अभिनिपात ( झुकाव) है, इस अर्थ में कि वह स्थूल एवं पूर्वगामी है, घण्टे पर आघात के समान । विचार चित्त का आलम्बन में अनुबन्ध है, इस अर्थ में कि वह सूक्ष्म एवं अनुमज्जन स्वभाव का है, घण्टे की प्रतिध्वनि (अनुगूंज) के समान । एवं इनमें, वितर्क विस्फुरण (स्पन्दन) युक्त है, विचार-प्रक्रिया की प्रथम उत्पत्ति के समय चित्त का स्पन्दन रूप है, आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी द्वारा अपने पलों को हिलाने-डुलाने के समान, या गन्ध से आकृष्ट चित्त वाले भौरें द्वारा कमल-पुष्प पर मँडराने के समान।
विचार की वृत्ति शान्त है। वह चित्त का, आकाश में उड़ने वाले पक्षी के पज फैलाने के समान और कमल के फूल पर मैंडराने वाले भौरे द्वारा कमल के ठीक ऊपर मँडराने के समान अतिस्पन्दन रूप है।
__ अकुतरनिकाय के दुकनिपात की अट्ठकथा में कहा गया है- "आकाश में उड़ते हुए विशाल पक्षी द्वारा दोनों पक्षों में हवा लेकर, उन्हें बलपूर्वक नीचे झुकाकर उड़ने के समान, आलम्बन के प्रति चित्त को आरोपणभाव से प्रवृत्त करना वितर्क ; एवं हवा लेने के लिये पजों को हिलाते हुए उड़ते रहने