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४. पथवीकसिणनिद्देस
१९३ तेसं परिच्चागेनेव चस्स अधिगमो होति, ओरिमतीरपरिच्चागेन पारिमतीरस्सेव, तस्मा नियम करोती ति।
तत्थ सिया-कस्मा पनेस पुब्बपदे येव वुत्तो, न उत्तरपदे? किं अकुसलेहि धम्मेहि अविविच्चा पि झानं उपसम्पज विहरेय्या ति? न खो पनेतं एवं ददुब्बं । तंनिस्सरणतो हि पुब्बपदे एस वुत्तो । कामधातुसमतिकमनतो हि कामरागपटिपक्खतो च इदं झानं कामानमेव निस्सरणं । यथाह-"कामानमेतं निस्सरणं यदिदं नेक्खम्म" (दी० ३-२१२) ति।
उत्तरपदे पि पन यथा
"इधेव, भिक्खवे, समणो, इध दुतियो समणो" (म०१-९०) ति। एत्थ एवकारो आनेत्वा वुच्चति, एवं वत्तब्बो। न हि सका इतो अजेहि पि नीवरणसङ्खातेहि अकुसलेहि धम्मेहि अविविच्च झानं उपसम्पज विहरितुं । तस्मा "विविच्चेव कामेहि विविच्चेव अकुसलेहि धम्मेही" ति एवं पदद्वये पि एस दगुब्बो। पदद्वये पि च किश्चापि 'विविच्चा' ति इमिना साधारणवचनेन तदङ्गविवेकादयो कायविवेकादयो च सब्बे पि विवेका सङ्गहं गच्छन्ति, तथा पि कायविवेको, चित्तविवेको, विक्खम्भनविवेको ति तयो एव इध दट्ठब्बा।
२६. कामेही ति। इमिना पन पदेन ये च निइसे "कतमे वत्थुकामा? मनापिका रूपा" (खु० ४: १-१) ति आदिना नयेन वत्थुकामा वुत्ता, ये च तत्थेव विभते च "छन्दो कामो, रागो कामो, छन्दरागो कामो, सङ्कप्पो कामो, रागो कामो, सङ्कप्परागो
.. कैसे? 'कामों से वियुक्त होकर ही'-ऐसा निर्धारित करने पर यह ज्ञात होता है-अवश्य ही काम इस ध्यान के प्रतिपक्षरूप है, जिनके होने पर यह नहीं होता, अन्धकार एवं प्रकाश के समान, अर्थात् अन्धकार प्रकाश के समान, काम एवं ध्यान साथ-साथ नहीं रह सकते । एवं इस ओर के तट के परित्याग से ही उस ओर के तट की प्राप्ति के समान, उन कामों के परित्याग से ही इस प्रथम ध्यान की प्राप्ति होती है। अतः नियम किया गया है।
वहाँ (=ध्यानसम्बन्धी पालि के विषय में) यह पूछा जा सकता है-"किसलिये यह ('ही'='एव' शब्द) पर्व पद (पर्व गद्यांश"विविच्चेव कामेहि में ही कहा गया है, उत्तर पद में नहीं? क्या अकुशल धर्मों से विरहित हुए विना भी ध्यान को प्राप्तकर विहार किया जा सकता है? ऐसा नहीं समझना चाहिये। उनसे (=कामधातु से) निःसरण के अर्थ में ही यह पूर्वपद में कहा गया है। कामधातु से समतिक्रमण रूप होने से, कामराग का प्रतिपक्षभूत होने से, यह ध्यान काम से ही निःसरण है। जैसा कि कहा है-"यह जो नैष्काम्य है यही कामों से निःसरण है"। कभी-कभी उत्तरपद में भी इस "एव' का प्रयोग हुआ है। जैसा कि-"भिक्षुओ, यहाँ श्रमण है, यहाँ (ही) दूसरा श्रमण है"। यहाँ 'एव' (ही) लाकर (मानकर ही) कहा गया है-यही कहना चाहिये । यहाँ, नीवरणसंज्ञक अन्य अकुशल धर्मों से रहित हुए विना ध्यान प्राप्त कर विहरना सम्भव नहीं है। इसलिये "कामों से विरहित होकर ही, अकुशल धर्मों से विरहित होकर ही"-इस प्रकार दोनों में इस 'ही' को समझना चाहिये। दोनों पदों में भी यद्यपि "विभक्त (=विरहित) होकर" इस सामान्य वचन से तदङ्गविवेक आदि और कायविवेक आदि सभी विवेक में संगृहीत हो जाते हैं; तथापि कायविवेक, चित्तविवेक एवं विष्कम्भणविवेक-तीनों को यहाँ समझना चाहिये।
२६. कामेहि (कामों से)-इस पद से जो कि निद्देस ( महानिदेस ग्रन्थ) में-"कितने वस्तुकाम (वस्तु के रूप में काम) हैं? मन को प्रिय लगने वाले (-मनाप) रूप" आदि प्रकार से वस्तुकाम कहे गये हैं और वहीं तथा विभा में "पन्द काम है, राग काम है, छन्द राग काम है; सङ्कल्प