________________
१९२
विसुद्धिमग्ग
नत्थि - पठमप्पनायं, लोकियाभिज्ञासु, चतूसु मग्गेसु, मग्गानन्तरे फले, रूपारूपभवेसु भवङ्गज्झाने, निरोधस्स पच्चये नेवसञ्जनासञ्ञायतने, निरोधा वुट्ठहन्तस्स फलसमापत्तियं ति । एत्थ मग्गानन्तरं फलं तिण्णं उपरि न होति । निरोधस्स पच्चयो नेवसञ्जानासञ्ञायतनं द्विनं उपरि न होति । रूपारूपेसु भवङ्गस्स परिमाणं नत्थि । सेसट्टानेसु एकमेव चित्तं ति । इति एकचित्तक्खणिका येव अप्पना, ततो भवङ्गपातो । अथ भवङ्गं वोच्छिन्दित्वा झानपच्चवेक्खणत्थाय आवज्जनं, ततो झानपच्चवेक्खणं ति ।
२४. एत्तावता च पनेस “विवच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति" (अभि० १ - ४५ ) । एवमनेन पञ्चङ्गविप्पहीनं पञ्चङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं पठमं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं ।
२५. तत्थ विविच्चेव कामेही ति । कामेहि विविच्चित्वा, विना हुत्वा, अपक्कमित्वा । यो पनायमेत्थ एवकारो, सो नियमत्थो ति वेदितब्बो । यस्मा च नियमत्थो, तस्मा तस्मि पठमज्झानं उपसम्पज्ज विहरणसमये अविज्जमानानं पि कामानं तस्स पठमज्झानस्स परिपक्खभावं कामपरिच्चागेनेव चस्स अधिगमं दीपेति ।
कथं ? ' विविच्चेव कामेही 'ति एवं हि नियमे करियमाने इदं पञ्ञायति - नूनमिमस्स ज्ञानस्स कामा परिपक्खभूता येसु सति इदं नप्पवत्तति, अन्धकारे सति पदीपोभासो विय।
२३. किन्तु यह अर्पणा एक चित्त-क्षण वाली ही होती है। सात स्थितियों (=स्थानों) में कालपरिच्छेद नहीं होता - प्रथम अर्पणा में, लौकिक अभिज्ञाओं में चार मार्गों में, मार्ग के बाद फल में, रूप और अरूप भवों में होने वाले भवङ्ग ध्यान में, निरोध के प्रत्यय-नैवसंज्ञानसंज्ञायतन में, निरोध से उठने वाले की फलसमापत्ति में । यहाँ, मार्ग के अनन्तर आने वाला फल संख्या में तीन चित्तों से अधिक नहीं होता । रूप और अरूप भवों में चित्तों की संख्या का परिमाण नहीं है। शेष स्थितियों में एक ही चित्त होता है। अतः अर्पणा एक चित्त-क्षण की ही होती है, तत्पश्चात् भवङ्गपात हो जाता है। तब भवङ्ग को रोक कर ध्यान के प्रत्यवेक्षण के लिये आवर्जन होता है, तत्पश्चात् ध्यान का प्रत्यवेक्षण होता है।
२४. यहाँ तक "विवच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति " ( अभि० १ - ४५) । एवमनेन पञ्चाङ्गविप्पहीनं पच्चङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्नं पठमं झानं अधिगतं होति पथवीकसिणं (कामों से विरहित अर्थात् वियुक्त) होकर ही और अकुशल धर्मों से विरहित होकर, वितर्क-विचार सहित विवेक से उत्पन्न प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहरता है" (अभि० १-४५) । और वह पञ्चाङ्गविरहित, पञ्चाङ्गसमन्वित, तीन प्रकार से उत्तम, दस लक्षणों से सम्पन्न, पृथ्वीकसिण का प्रथम ध्यान प्राप्त कर चुका होता है ।) इस पालिपाठ का व्याख्यान हुआ ।
२५. इस ध्यान - पालि में विविच्चेव कामेहि- "कामों से विरहित होकर ही " - कामों से वियुक्त होकर (उनके) विना होकर, दूर होकर। और यहाँ जो 'एव' (ही) शब्द का प्रयोग किया गया है, उसे नियम के अर्थ में समझना चाहिये। चूँकि वह नियमार्थ है अतः यह सूचित करता है कि उस प्रथम ध्यान से युक्त होकर विहरने के समय, नहीं रहने वाले कामों का उस प्रथम ध्यान से विरोध है; एवं काम के परित्याग से ही उस प्रथम ध्यान की प्राप्ति होती है।