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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १९१ ति पि वुच्चन्ति। यं चेत्थ सब्बन्तिमं, तं परित्तगोत्ताभिभवनतो महग्गतगोत्तभावनतो च गोत्रभू ति पि वुच्चति। अग्गहितग्गहणेन पनेत्थ पठमं परिकम्म, दुतियं उपचारं, ततियं अनुलोम, चतुत्थं गोत्रभु। पठमं वा उपचारं, दुतियं अनुलोम, ततियं गोत्रभु, चतुत्थं पञ्चमं वा अप्पनाचित्तं। चतुत्थमेव हि पञ्चमं वा अप्पेति, तं च खो खिप्पाभिज्ञ-दन्धाभिञवसेन। ततो परं जवनं पतति, भवङ्गस्स वारो होति। २१. आभिधम्मिकगोदत्तत्थेरो पन"पुरिमा पुरिमा कुसला धम्मा पच्छिमानं कुसलानं धम्मानं आसेवनपच्चयेन पच्चयो" (अभि०७:१-८) ति इमं सुत्तं वत्वा"आसेवनपच्चयेन पच्छिमो पच्छिमो धम्मो बलवा होति, तस्मा छटे पि सत्तमे पि अप्पना होती" ति आह। तं अट्ठकथासु"अत्तनो मतिमत्तं थेरस्सेतं" ति वत्वा पटिक्खित्तं। २२. चतुत्थपञ्चमेसु येव पन अप्पना होति, परतो जवनं पतितं नाम होति, भवङ्गस्स आसन्नत्ता ति वुत्तं। तं एवं विचारेत्वा वुत्तत्ता न सका पटिक्खिपितुं। यथा हि पुरिसो छिन्नपपाताभिमुखो धावन्तो ठातुकामो पि परियन्ते पादं कत्वा ठातुं न सकोति पपाते एव पतति, एवं छठे वा सत्तमे वा अप्पेतुं न सक्कोति, भवङ्गस्स आसन्नत्ता। तस्मा चतुत्थपञ्चमेसु येव अप्पना होती ति वेदितब्बा। __२३. सा च पन एकचित्तक्खणिका येव। सत्तसु हि ठानेसु अद्धानपरिच्छेदो नाम परित्र गोत्र को अभिभूत करने से एवं महद्गत गोत्र की भावना करने से 'गोत्रभू भी कहा जाता है। (इन चार चित्तों में से प्रथम को परिकर्म, उपचार एवं अनुलोम-इन तीन नामों से कहा जा सकता है। द्वितीय एवं तृतीय चित्त को भी इन तीन नामों से कहा जा सकता है, किन्तु गृहीत का ग्रहण न करते हुए (=पुनरावृत्ति से बचते हुए), प्रथम को ‘परिकर्म', द्वितीय को 'उपचार', तृतीय को 'अनुलोम', चतुर्थ को 'गोत्रभू' कहा जाता है। अथवा, प्रथम को उपचार, द्वितीय को अनुलोम, तृतीय को गोत्रभू एवं चतुर्थ या पञ्चम को अर्पणाचित्त कहा जाता है। क्षिप्र अभिज्ञा एवं मन्द अभिज्ञा के अनुसार वह चतुर्थ या पञ्चम चित्त अर्पणा होता है। उसके बाद जवन का पात होता है, फिर भवङ्ग का अवसर आता है। २१. किन्तु आभिधर्मिक गोदत्त स्थविर "पूर्व-पूर्व के कुशल धर्म पश्चात्-पश्चात् के कुशल धर्मों के आसेवन प्रत्यय होने से प्रत्यय हैं" (अभि० ७.१-८) इस सूत्र का उद्धरण देकर कहते हैं कि "आसवेन प्रत्यय से पश्चात् का धर्म सबल होता है, इसलिये अर्पणा छठे और सातवें पर भी होती है।" इस मत का अट्ठकथाओं में "वह स्थविर का अपना विचारमात्र है" कहकर खण्डन किया गया है। २२. कहा गया है कि "चौथे-पाँचवें में ही अर्पणा होती है। उसके बाद भवङ्ग की समीपता के कारण, जवन-पात होता है। क्योंकि यह (मत) इस प्रकार विचार करने के बाद कहा गया है, अतः इसका खण्डन नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति टूटे हुए तटवाले प्रपात की ओर दौड़ते हुए खड़े होने की इच्छा करने पर भी, किनारे पर पैर रखकर खड़ा नहीं हो पाता, प्रपात में गिर ही पड़ता है, उसी प्रकार चौथे पाँचवें में ही अर्पणा होती है-यही समझना चाहिये। १. 'गोत्तं भवति अमिभवतीति गोत्रभू । अर्थात् पृथग्जन के गोत्र (=सत्कायदृष्टि एवं विचिकित्सा से सम्प्रयुक्त चित्तसन्तति) का अभिभव करने वाला चित्त 'गोत्रभू' है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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