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विसुद्धिमग्ग इममत्थं सन्धाय एतं वुत्तं
"रेणुम्हि उप्पलदले, सुत्ते, नावाय, नाळिया। यथा मधुकरादीनं पवत्ति सम्मवण्णिता ॥ लीनउद्धतभावेहि मोचयित्वान सब्बसो। एवं निमित्ताभिमुखं मानसं पटिपादये॥ ति॥
पठमझानकथा .. २०. इति एवं निमित्ताभिमुखं मानसं पटिपादयतो पनस्स'इदानि अप्पना इज्झिस्सती' ति भवङ्गं उपच्छिन्दित्वा 'पथवी, पथवी' ति अनुयोगवसेन उपद्रितं तदेव पथवीकसिणं आरम्मणं कृत्वा मेनोद्वारावजनं उप्पज्जति। ततो तस्मि येवारम्मणे चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति। तेसुअवसाने एकं रूपावरं सेसानि कामावचरानि। पकतिचित्तेहि बलवतरवितकविचारपीतिसुखचित्तेकग्गतानि यानि अप्पनाय परिकम्मत्ता परिकम्मानी ति पि, यथा गामादीनं आसन्नपदेसो गामूपचारो नगरूपचारो ति वुच्चति, एवं अप्पनाय आसन्नत्ता समीपचारित्ता वा उपचारानी ति पि, इतो पुब्बो परिकम्मानं, उपरि अप्पनाय च अनुलोमतो अनुलोमानी
इसी अर्थ के सन्दर्भ में (ऊपर) यह कहा गया है-"रेणुम्हि..उप्पलदले.मानसं पटिपादये"।। (पराग में...चित्त लगाना चाहिये)। प्रथमध्यान-वर्णन
२०. इस प्रकार निमित्त की ओर मन को प्रवृत्त करने वाले इस (भिक्षु) में इसके बाद अर्पणा उत्पन्न होगी'-इस प्रकार भिक्षु की जानकारी में भवङ्ग का उपच्छेद करके 'पृथ्वी, पृथ्वी' इस अनुयोग के अनुसार उपस्थित उसी पृथ्वीकसिण को आलम्बन बनाकर मनोद्वारावर्जन' चित्त उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् उसी आलम्बन में चार या पाँच जवनचित्त जवन करते हैं। उनका अवसान होने पर एक रूपावचर एवं शेष कामावचरचित्त उत्पन्न होते हैं, जो कि साधारण चित्तों की अपेक्षा बलवत्तर वितर्क, विचार, प्रीति, सुःख एवं एकाग्रता से युक्त होते हैं; जो कि अर्पणा के परिकर्म होने से परिकर्म भी एवं जैसे ग्राम आदि का आसन्न प्रदेश या गामोपचार नगरोपचार कहा जाता है, वैसे ही अर्पणा के आसन्न या समीपवर्ती होने से 'उपचार' एवं पहले आने वाले परिकर्मों के या बाद में आने वाली अर्पणा के अनुलोम (=अनुरूप) होने से 'अनुलोम' भी कहे जाते हैं। और जो इनमें से अन्तिम है वह १."भवस्स अज भवङ्ग" भव के अजको 'भवङ्ग कहते हैं। अर्थात् उत्पत्तिभव की अविच्छिन्न प्रवृत्ति के हेतुभूत चित्त को भवङ्ग कहते हैं। (द्र०-पन्दी०. पृष्ठ १०४-१०५। २. मनोद्वारावर्जन-वीथिसन्तति के पहले भवासन्तति होती है। जब अभिनव आलम्बन अवभासित होता है तब उस भवङ्गसन्तति को पुनः उत्पन्न होने से रोकने के लिये उसका अवरोध करना आवर्जन का कृत्य है। यह आवर्जन नवीन आलम्बन का ग्रहण करने के लिये वीथिसन्तति के उत्पाद हेतु चित्तसन्तति को नवीन आलम्बन की तरफ अभिमुख करता है। चक्षुर आदि पाँच (इन्द्रियों के) द्वारों में होने वाले आवर्जन को 'मनोद्वारावर्जन' कहते हैं। (द्र०-प०दी०, पृ० १०५) ३. 'जवतीति जवनं'-वेग से गमन करना 'जवन' कहलाता है। जवनचित्त चाहे एक बार उत्पन्न हो या अनेक बार, अत्यन्त वेगपूर्वक उत्पन्न होता है। आलम्बन का अनुभव करना या रस लेना जवन का कृत्य है। (द०एक दी०, पृष्ठ १०५) ४. 'परिकरोति अप्पं अभिसङ्घरोतीति परिकम्म'-जो चित्त अर्पणा का अभिसंस्कार करता है वह 'परिकर्म' है, अर्थात् अर्पणा का उत्पाद करने वाला चित्त । (द्र०-विभा०. पृष्ठ ११२) ५. अर्पणा के न समीप और न बहुत दूर चित्त को ‘उपचार' कहते हैं। (द्र० विसु० महा०, प्र० भा०, पृ० ११२)।
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