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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १८९ यथा च "यो चतुब्यामप्पमाणं मक्कटसुत्तं आहरति, सो चत्तारि सहस्सानि लभती' ति रञ्ञा वुत्ते को अछेकपुरिसो वेगेन मक्कटकसुत्तं आकङ्क्षन्तो तहिं तहिं छिन्दति येव । अपरो अछेको छेदनभया हत्थेन फुसितुं पि न विसहति । छेको पन कोटितो पट्ठाय समेन पयोगेन दण्डके वेधेत्वा आहरित्वा लाभं लभति । यथा च अछेको नियामको बलववाते लङ्कारं पूरेन्तो नावं विदेसं पक्खन्दापेति । अपरो अछेको मन्दवाते लङ्कारं आरोपेन्तो नावं तत्थेव ठपेति । छेको पन मन्दवाते लङ्कारं पूरेत्वा बलववाते अङ्कलङ्कारं कत्वा सोत्थिना इच्छितट्ठानं पापुणाति । यथा च "यो तेलेन अछड्डेन्तो नाळिं पूरेति, सो लाभं लभती" ति आचरियेन अन्तेवासिकानं वुत्ते एको अछेको लाभलुद्धो वेगेन पूरेन्तो तेलं छड्डेति । अपरो तेलछड्डूनभया आसिञ्चितुं पि न विसहति । छेको पन समेन पयोगेन पूरेत्वा लाभं लभति । एवमेव एको भिक्खु "उप्पन्ने निमित्ते सीघमेव अप्पनं पापुणिस्सामी" ति गाळ्हं विरियं करोति, तस्स चित्तं अच्चारद्धविरियत्ता उद्धच्चे पतति, सो न सक्कोति अप्पनं पापुणितुं । एको अच्चारद्धविरियताय दोसं दिस्वा, 'किं दानि मे अप्पनाया' ति विरियं हापेति । तस्स चित्तं अतिलीनविरियत्ता कोसज्जे पतति, सो पि न सक्कोति अप्पनं पापुणितुं । यो पन ईसक पिलीनं लीनभावतो, उद्धतं उद्धच्चतो मोचेत्वा समेन पयोगेन निमित्ताभिमुखं पवत्तेति, सो अप्पनं पापुणाति । तादिसेन भवितब्बं । • और जैसे "जो चार व्याम (१ व्याम = ६ फुट) की लम्बाई वाले मकड़ी के सूत को लायगा वह चार हजार पायगा” इस प्रकार राजा द्वारा कहे जाने पर कोई अनाड़ी पुरुष तेजी से मकड़ी का सूत खींच कर निकालते हुए जहाँ तहाँ से तोड़ डालता है; दूसरा अनाड़ी टूट जाने के डर से हाथ लगाने का भी साहस नहीं करता; किन्तु चतुर पुरुष सन्तुलित प्रयास द्वारा किनारे से लेकर अन्त तक डण्डे में सूत लपेट कर राजा के सामने लाकर पुरस्कार पाता है। (३) और जैसे कोई अनाड़ी माँझी (नाविक = नियामक) तेज हवा में पाल तान कर नाव को विदेश (गलत जगह) में पहुँचा देता है, दूसरा अनाड़ी धीमी हवा में पाल उतार देता है जिससे नाव वहीं की वहीं ठहर जाती है; किन्तु चतुर माँझी धीमी हवा में पूरा पाल तान कर और तेज हवा में आधा पाल तानकर सुरक्षित रूप से अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाता है । (४) और जैसे "जो तेल को विना गिराये उसे फोंफी (शीशी में भरेगा, वह पुरस्कार पायेगा"इस प्रकार आचार्य द्वारा शिष्यों को संकेत किये जाने पर कोई अनाड़ी शिष्य, तेजी से भरते हुए, तेल गिरा देता है; दूसरा मूर्ख शिष्य तेल गिर जाने के डर से तेल उड़ेलने का भी साहस नहीं करता; किन्तु चतुर शिष्य सन्तुलित प्रयास द्वारा कथित विधि से भरकर पुरस्कार पाता है। (५) इसी प्रकार कोई भिक्षु "निमित्त उत्पन्न हो गया, अब शीघ्र ही अर्पणा को प्राप्त करूँगा " - इस प्रकार सोचकर दृढ़ उद्योग करता है। इस अत्यधिक उद्योग के कारण उसके चित्त का औद्धत्य में पतन हो जाता है, अतः वह अर्पणा प्राप्त नहीं कर पाता। दूसरा कोई अत्यधिक उद्योग में दोष देखकर "अब मुझे अर्पणा से क्या ?" - ऐसा सोचकर उद्योग करना ही छोड़ देता है। यों, अत्यल्प उद्योग के कारण, उसके चित्त का कौसीद्य में पतन हो जाता है। वह भी अर्पणा प्राप्त नहीं कर पाता । किन्तु जो अल्पमात्र आलस्ययुक्त चित्त को आलस्य से उद्धत चित्त को औद्धत्य से छुड़ाकर उसे सन्तुलित प्रयास द्वारा निमित्त की ओर प्रवृत्त करता है, वही अर्पणा प्राप्त कर पाता है। भिक्षु को ऐसा ही प्रयास करना चाहिये ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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